विक्रम संवत के आगमन पर...प्रमाणिक इतिहास हमारा स्वर्णिम विक्रम संवत

विक्रम संवत्' के दो हजार वर्ष का समाप्त होना भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना थी। धूमिल अतीत में विक्रम के स्मारक स्वरुप जिस विक्रम संवत् का प्रर्वतन हुआ था, उसके पथ की वर्तमान रेखा यद्यपि अंधकार में डुबी है परन्तु इस डोर के सहारे हम अपने आपको उस श्रृंखला के क्रम में पाते है, जिसके अनेक अंश अत्यंत उज्जवल एवं गौरवमय रहे हैं। ये दो हजार वर्ष तो भारतीय इतिहास के उतरकाल के ही अंश है। विक्रम के उद्भव तक विशुद्ध वैदिक संस्कृति का काल, रामायण और महाभारत का युग, महावीर और गौतम बुद्ध का समय, पराक्रम सूर्य चन्द्रगुप्त मौर्य एवं प्रियदर्शी अशोक का काल, अंततः पुष्यमित्र शुंग की साहस गाथा सुदूरभूत की बातें बन चुकी थी। वेद, ब्राहमण, उपनिषद, सूत्र-ग्रंथ एंव मुख्य स्मृतियों की रचना हो चुकी थी। वैयाकरण पाणिनी और पतंजलि अपनी कृतियों से पंडितों को चकित कर चुके थे और कौटिल्य की ख्याति सफल राजनीतिज्ञता के कारण फैल चुकी थी। उन पिछले दो हजार वर्षों की लंबी यात्रा में भी भारत के शौर्य ने उसकी प्रतिभा के शौर्य ने उसकी विद्वता ने जो मान स्थित कर दिए है,वे विगत शताब्दियों के बहुत कुछ अनुरुप हैं। विक्रम संवत् के प्रथम हजारों वर्षों में हमने मात्र शिवनागों, समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त, विक्रमादित्य, स्कंदगुप्त, यशोधर्मन, स्कंदगुप्त, यशोधर्मन, विष्णुवर्धन आदि के बल और प्रताप के सम्मुख विदेशी शक्तियों को थर-थर कांपते हुए देखा, भारत के उपनिवेश बसते देखे, भारत की सस्कृति और उसके धर्म का प्रसार बाहर के देशों में देखा। कालिदास, भवभूति, भारवि, माघ आदि की काव्य- प्रतिभा तथा दण्डि और बाण भटट् की विलक्षण लेखन-शक्ति देखी, कुमारिल भटट् और शंकराचार्य का बुद्धि-वैभव देखा और स्वतंत्रता की अग्नि को सदैव प्रज्जवलित रखने वाली राजपूत जाति के उत्थान व सगंठन को देखा। हालांकि दूसरी सहस्त्राब्दी में भाग्य चक्र की गति थोड़ी सी विपरीत हो गई, उसने उपनिवेशों का उजड़ना दिखाया और भारतीयों की हार तथा बहुमुखी पतन भी हमने देखा। परंतु उनकी आंतरिक जीवन-शक्ति का ह्रास नहीं हुआ और हमने यह भी दिखा दिया कि गिरकर भी कैसे उठा जा सकता है। 



भारतीय संस्कृति के अभिमानियों के लिए यह कम गौरव की बात नहीं-आज भारतवर्ष में प्रवर्तित विक्रम संवत्सर, बुद्ध- निर्वाण काल-गणना को छोड़कर संसार के प्रायः सभी प्रचलित ऐतिहासिक संवतों से अधिक प्राचीन है।


‘विक्रम', 'यह था' या 'वह', यह विवाद केवल अनुसंधान प्रिय पंडितों का समीक्षार्थ विषय है। आज संपूर्ण विश्व में जिस प्रकाशपुंज की विमलधवल कीर्ति फैल रही है वह कहाँ से और कैसे उद्धव हो गई है, वह तो इतिहासकताओं की अनुसंधानशाला तक मर्यादित है। उनसे उच्चकोटि के मानसमूह तो बरसो से ‘विक्रम” को अपने हृदय में संजोए बैठे हैं। दरअसल ‘विक्रम' में हम अपने विशाल देश की परतंत्र पाश-पीड़ा से मुक्ति दिलाने वाली समर्थ शक्ति की अभ्यर्थना करते है। इसकी पावन स्मृति की धरोहर संवत् वर्षकाल गणना की स्मरण मणि की तरह इतिहास की श्रृंखलाएँ भी एक-दूसरे से जुडी चली जाती है। विक्रम, कालिदास और उज्जयिनी हमारे स्वाभिमान, शौर्य और स्वर्णयुग के अभिमान का विषय है।


उसी उज्जयिनी में महर्षि सान्दीपनी वंश में उत्पन्न पद्मभूषण, साहित्य वाचस्पति स्व. पं. सूर्यनारायण व्यास ने विक्रम संवत् के दो हजार वर्ष पूर्ण होने पर एक मासिक पत्र ‘विक्रम' का प्रकाशन आरंभ किया। पं. व्यास का अपना निजी प्रेस था जहां से वे अपने पंचांग का प्रकाशन करते थे। ‘विक्रम' मासिक विक्रमद्ध का प्रकाशन एक विशेष उददेश्य को लेकर किया गया था। विशेषकर उन दिनों जब हिन्दी में चांद, हंस, वीणा, माधुरी, सुधा, सरस्वती जैसी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका हिन्दी में सुस्थापित थी। पं. व्यास का उज्जैन जैसे छोटे से कस्बे से ‘विक्रम' का प्रकाशन दुस्साहस ही कहा जाएगा। मगर 'विक्रम' तो मानो उनके बल, विक्रम, पुरुषार्थ का परिचायक ही बन गया था।


विकृत और धूमिल किया जा रहा था, उससे पं. व्यास मानो लोहा लेने खड़े हुए थे, अर्से से हमे पढ़ाया जा रहा था, हम मुगलों के, अंग्रेजों के गुलाम रहे है। हम शोषित, पीडित और गुलामों को पं. व्यास ने एक प्रबल बल, विक्रम और पुरुषार्थपराक्रमी नायक, चरित्र नायक संवत् प्रवर्तक सम्राट विक्रमादित्य दिया और बताया कि हम आरंभ से ही परास्त, पराजित, पराभूत और शोषित नहीं रहे हैबल्कि 'शक' और हूणों को परास्त करने वाला हमारा नायक शकारि विक्रमादित्य विजय और विक्रम का दूसरा प्रतीक है। कालिदास समारोह के जन्म से भी पुरानी घटना है यह, जब उज्जयिनी में पं. व्यास ने विक्रम द्विसहस्त्राब्दि समारोह समिति का गठन कर सम्राट विक्रम की पावन स्मृति में चार महत् उददेश्यों की स्थापना का संकल्प लिया, वे उददेश्य थे विक्रम के नाम पर एक ऐसे विश्वविद्यालय की स्थापना जो साहित्य, शिक्षा, कला, सस्कृति की त्रिवेणी हो। वो विक्रम कीर्ति मन्दिर नाटय्शाला स्थापना और विक्रम स्मृति ग्रंथ का प्रकाशन हो।


इसमें कोई शक नहीं कि विक्रम द्विसहस्त्राब्दी की उनकी इस योजना में उनके सबसे अंतरंग स्नेह सहयोगी महाराजा जीवाजीराव सिंधिया का विशेष सहयोग रहा। ‘विक्रम-पत्र के माध्यम से जब यह योजना देश के सम्मुख पं. व्यास ने रखी थी, तब भी वे नहीं जानते थे कि उनकी इस योजना का इतना सम्यक् स्वागत होगा। विशेषकर वीर सावरकर और के.एम. मुंशी जी ने अपने पत्र ‘सोशल वेलफेयर' में इस योजना का प्रारुप संपूर्ण विवरण के साथ विस्तार से प्रकाशित किया और सारे देश से इस पुण्य कार्य में पूर्ण सहयोग देने की प्रार्थना की।


महाराज देवास ने इस आयोजन के लिए सारा धन देना स्वीकार किया मगर शर्त यह रखी गई कि सारे सूत्र उनके हाथों में रखे जाए। मगर विधि को कुछ और ही मंजूर था, पं. व्यास अपने व्यक्तिगत कार्यवश मुंबई गए और वहाँ मुंशीजी से मिलकर


योजना पर विस्तार से चर्चा की, तभी महाराजा सिंधिया का उन्हें निंमत्रण मिला। महाराजा जीवाजीराव सिंधिया ने पंडित व्यास को बताया कि वे इस योजना को अत्यंत महत्वपूर्ण मानते है और इस कार्य को एक समिति बनाकर आगे बढ़ाना चाहिए, यह चर्चा कुछ ही क्षणों में हो गई। जब पं. व्यास महाराज से मिलकर कक्ष से बाहर ही निकले थे कि महाराज ने पुनः आवाज दी और विस्तार से चर्चा का पुनः आमंत्रण दिया। अगली मुलाकात दो-चार मिनट भी नहीं, लगभग ढाई घंटे की हुई और इस चर्चा ने तो सारी रुपरेखा ही बदल दी, जो कल्पना की गई थी उससे व्यापक रुप से समारोह करने की बात तय हुई और इस तरह पं. व्यास सप्ताह भर ग्वालियर रुके और रोजाना घंटों-घंटो विचार विनिमय हुआ। महाराज से पं. व्यास का अंतरंग आत्मीय संबंध यूं तो सन् 1934 से था। मगर इस संबंध में ज्योतिष ही प्रमुख कड़ी था। यह पहला अवसर था जब उन्होंने एक विशिष्ट विषय पर उनसे चर्चा की थी।


महाराजा का विचार, विक्रम उत्सव के लिए पचास लाख की धनराशि एकत्रित कर अनेक महत्वपूर्ण कार्य आरंभ करना था, विश्वविद्यालय के लिए धनराशि शासन की और से दी जानी थी। इसके सिवा उज्जैन के प्रमुख धार्मिक स्थान और ऐतिहासिक स्थानों के सुधार के लिए शासन की ओर से धनराशि दी जानी थी। इसके सिवा उज्जैन के प्रमुख धार्मिक स्थान और एतिहासिक स्थानों के सुधार के लिए शासन के अनेक विभागों द्वारा सहयोग देने का निश्चय किया गया। तदनुसार महाकाल मंदिर, हरसिद्धि मंदिर और क्षिप्रातट पर सुधार कार्य आंरभ हो गए थे। जहाँ-जहाँ ये सुधार कार्य हुए वहाँ पं. व्यास ने, जो स्वयं संस्कृत के सुकवि थे, यह श्लोक अंकित करवा दिया था।‘‘द्वि सहस्त्रमिते वर्षे चैत्रे विक्रम संवत्सरे, महोत्सव सभा सम्यकः जीर्णोद्धारमकारयत्।''


जैसे-जैसे समारोह का कार्य प्रगति कर रहा था, देश के विभिन्न भागों में एक सांस्कृतिक वातावरण बन गया था। लगभग उसी समय पत्र-पत्रिकाओं में रवीन्द्रबाबू और निराला ने भी ‘विक्रम' पर कविताओं का सृजन किया था-रवीन्द्र बाबू की दूर बहुत दूर क्षिप्रातीरे... और निराला की 'द्विसहस्त्राब्दि कविता पठनीय ही नही संग्रहणीय भी है। हिन्दू महासभा के तत्कालीन अध्यक्ष के समर्थन और सहयोग से सारे देश में चेतना फैली थी। इसी दरम्यान मियां मियां जिन्ना ने अपने एक भाषण मे इस उत्सव का विरोध किया। जिन्ना के विरोध से सरकार के भी कान खड़े हो गए, चूंकि वह समय भी ऐसा था, विश्वयुद्ध के आसार सामने थे, ब्रिटिश सरकार चैकन्नी हो गई। उन्हें पं. व्यास के इस आयोजन में क्रांति या विद्रोह की बू दिखी क्योंकि एक साथ 114 देशी महाराजा एक जगह विक्रम महाराजा उत्सव के नाम पर इकठा हो रहे थे, निस्संदेह इस पर्वरंग में पं. व्यास की यह परिकल्पना भी छुपी थी। शौर्य और विक्रम उत्सव के इस उत्सव के अवसर पर हमारे खोये बल, पराक्रम की चर्चा देशी राजाओं के रक्त में उबाल अवश्य ले आएगी। वैसे इस आयोजन में हिन्दू-मुस्लिम भेद-भाव को कोई जगह नहीं थी किंतु जिन्ना के विरोध से वातावरण में विकार पैदा हो गया। उस समय पं. व्यास ने नवाब भोपाल को शासकीय स्तर पर समारोह मनाने के लिए लिखानवाब ने अपने कैबिनेट में योग्य विचार करने का आश्वासन दिया। चेतना फैल रही थी, जागृति फैल रही थी। मुंबई में बड़े पैमाने पर यह समारोह आयोजित किया गया। देश की हजारों सभा-संस्थाओं ने समारोह की तैयारी की।


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