विक्रमोत्सव का महत्त्व

हमारी पृष्ठभूमि दो-ढाई सौ वर्ष के उज्ज्वल इतिहास की है अतः हमारा भविष्यकाल भी अन्यन्त उज्ज्वल है'' तो हमारा दो हजार वर्ष का समय कितना सुदीर्घ है इसकी कल्पना सहज ही हो सकती है। वर्तमान में खाल्डियन, सुमेरियन, इजिप्शियन आदि अनेक संस्कृतियाँ रसातल में चली गयी हैं और आज उनका कोई नाम लेवा भी नहीं दिखाई देता। हमारी पृष्ठभूमि दो-ढाई सौ वर्ष के उज्ज्वल इतिहास की है अतः हमारा भविष्यकाल भी अन्यन्त उज्ज्वल है'' तो हमारा दो हजार वर्ष का समय कितना सुदीर्घ है इसकी कल्पना सहज ही हो सकती है। वर्तमान में खाल्डियन, सुमेरियन, इजिप्शियन आदि अनेक संस्कृतियाँ रसातल में चली गयी हैं और आज उनका कोई नाम लेवा भी नहीं दिखाई देता।


परमप्रतापी संवत्-प्रस्थापक श्री विक्रमादित्य महाराज की संवत्-स्थापना को विगत कार्तिक मास में दो हजार वर्षों से अधिक हो गए हैं। उन्होंने उस अवसर पर प्रवर्तित किये हुए संवत् का अनुपालन आज भी कोटि-कोटि हिन्दू करते हैं। परम प्रतापी विक्रमादित्य अखिल हिन्दू भारतीय राष्ट्र की एक मानबिन्दु है। शक, हूण आदि तत्कालीन विदेशी शक्तियों को पराभूत कर, भारतवर्ष में स्वतन्त्र तथा प्रबंल हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करने वाले इस पराक्रमी हिन्दू-सम्राट् का समय हिन्दू राष्ट्र के इतिहास का एक सुवर्ण-पृष्ठ है। रमप्रतापी संवत्-प्रस्थापक श्री विक्रमादित्य महाराज की संवत्-स्थापना को विगत कार्तिक मास में दो हजार वर्षों से अधिक हो गए हैं। उन्होंने उस अवसर पर प्रवर्तित किये हुए संवत् का अनुपालन आज भी कोटि-कोटि हिन्दू करते हैं। परम प्रतापी विक्रमादित्य अखिल हिन्दू भारतीय राष्ट्र की एक मानबिन्दु है। शक, हूण आदि तत्कालीन विदेशी शक्तियों को पराभूत कर, भारतवर्ष में स्वतन्त्र तथा प्रबंल हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करने वाले इस पराक्रमी हिन्दू-सम्राट् का समय हिन्दू राष्ट्र के इतिहास का एक सुवर्ण-पृष्ठ है।



उस महापुरुष का पराक्रम ही इतना अनूठा है कि उनके नाम से प्रचलित संवत्सर के एक-एक दिवस की गणना करते हुए आज दो हजार से अधिक वर्ष तक हमने उनकी स्मृति सँजोये रखी है। दो हजार वर्ष का यह समय इतरों की तुलना में सचमुच ही सुदीर्घ मानना चाहिए, इस विषय में तो कोई संशय ही नहीं हैअँग्रेजों को भी अपने इतिहास के इतने वर्ष सम्भव नहीं। अस्तित्व में आये हुए कुल मिलाकर केवल दौ-ढाई सौ वर्ष वाले अमेरिकन लोग बड़े ही रौब, घमण्ड और अभिमान से अगर कहते हैंउस महापुरुष का पराक्रम ही इतना अनूठा है कि उनके नाम से प्रचलित संवत्सर के एक-एक दिवस की गणना करते हुए आज दो हजार से अधिक वर्ष तक हमने उनकी स्मृति सँजोये रखी है। दो हजार वर्ष का यह समय इतरों की तुलना में सचमुच ही सुदीर्घ मानना चाहिए, इस विषय में तो कोई संशय ही नहीं हैअँग्रेजों को भी अपने इतिहास के इतने वर्ष सम्भव नहीं। अस्तित्व में आये हुए कुल मिलाकर केवल दौ-ढाई सौ वर्ष वाले अमेरिकन लोग बड़े ही रौब, घमण्ड और अभिमान से अगर कहते हैं


"हमारी पृष्ठभूमि दो-ढाई सौ वर्ष के उज्ज्वल इतिहास की है अतः हमारा भविष्यकाल भी अन्यन्त उज्ज्वल है'' तो हमारा दो हजार वर्ष का समय कितना सुदीर्घ है इसकी कल्पना सहज ही होने सकती है। वर्तमान में खाल्डियन, सुमेरियन, इजिप्शियन आदि अनेक संस्कृतियाँ रसातल में चली गयी हैं और आज उनका कोई नाम लेवा भी नहीं दिखाई देता। परन्तु हमारे लिए यह अत्यन्त अभिमान और उत्साह की बात है कि एक- एक दिवस की गणना करते हुए आज दो "हमारी पृष्ठभूमि दो-ढाई सौ वर्ष के उज्ज्वल इतिहास की है अतः हमारा भविष्यकाल भी अन्यन्त उज्ज्वल है'' तो हमारा दो हजार वर्ष का समय कितना सुदीर्घ है इसकी कल्पना सहज ही होने सकती है। वर्तमान में खाल्डियन, सुमेरियन, इजिप्शियन आदि अनेक संस्कृतियाँ रसातल में चली गयी हैं और आज उनका कोई नाम लेवा भी नहीं दिखाई देता। परन्तु हमारे लिए यह अत्यन्त अभिमान और उत्साह की बात है कि एक- एक दिवस की गणना करते हुए आज दो हजार वर्ष का उत्सव विक्रम के नाम से मनाने वाले एक सौ तीस करोड़ हिन्दू उस संस्कृति की विरासत दर्शाने के लिए इसी राष्ट्र में जीवन्त रूप में विद्यमान हैंहजार वर्ष का उत्सव विक्रम के नाम से मनाने वाले एक सौ तीस करोड़ हिन्दू उस संस्कृति की विरासत दर्शाने के लिए इसी राष्ट्र में जीवन्त रूप में विद्यमान हैं


ई.पू. 57 वें वर्ष में एक इतनी बड़ी अकल्पनीय और अघटित घटना घट गई कि उसका स्मरण, एक विशिष्ट कालमान के रूप में, हम आज दो हजार वर्षों तक निरन्तर प्रत्येक दिवस की गणना करते हुए चले आ रहे हैं। यह कालगणना हमने आज तक अविच्छिन्न-रूप में चलाये रखी है। इसी में इसकी मूल घटना का महत्त्व सिद्ध होता है। इस कालगणना को चाहे ''कृत'' नाम दो, मालवगण नाम दो अथवा ''विक्रम' नाम दो। नाम चाहे कोई भी रहा; यह कालगणना तो एक ही अखण्ड- रूप में धाराप्रवाह चली आ रही है और यह निर्विवाद सत्य है। ठीक यही बात विक्रमादित्य के विषय में भी कही जा सकती है। यह 'विक्रम' नाम भी व्यक्ति के रूप में उतना महत्त्वपूर्ण न रहते हुए वस्तुतः एक संस्था ही बन गया है। ऐतिहासिक-दृष्टि से भी कहा जाये तो वर्तमान अवस्था में अन्यान्य आधारों की खोज-बीन के झमेले में पड़ने की अपेक्षा परम्परा से चले आ रहे वृत्तान्त को ही अधिक मान देना उपयुक्त होगा। परम्परा के अनुसार इस देश में आये हुए विदेशी शक, हूण लोगों को ई.पू. 57 वर्ष में विक्रमादित्य ई.पू. 57 वें वर्ष में एक इतनी बड़ी अकल्पनीय और अघटित घटना घट गई कि उसका स्मरण, एक विशिष्ट कालमान के रूप में, हम आज दो हजार वर्षों तक निरन्तर प्रत्येक दिवस की गणना करते हुए चले आ रहे हैं। यह कालगणना हमने आज तक अविच्छिन्न-रूप में चलाये रखी है। इसी में इसकी मूल घटना का महत्त्व सिद्ध होता है। इस कालगणना को चाहे ''कृत'' नाम दो, मालवगण नाम दो अथवा ''विक्रम' नाम दो। नाम चाहे कोई भी रहा; यह कालगणना तो एक ही अखण्ड- रूप में धाराप्रवाह चली आ रही है और यह निर्विवाद सत्य है। ठीक यही बात विक्रमादित्य के विषय में भी कही जा सकती है। यह 'विक्रम' नाम भी व्यक्ति के रूप में उतना महत्त्वपूर्ण न रहते हुए वस्तुतः एक संस्था ही बन गया है। ऐतिहासिक-दृष्टि से भी कहा जाये तो वर्तमान अवस्था में अन्यान्य आधारों की खोज-बीन के झमेले में पड़ने की अपेक्षा परम्परा से चले आ रहे वृत्तान्त को ही अधिक मान देना उपयुक्त होगा। परम्परा के अनुसार इस देश में आये हुए विदेशी शक, हूण लोगों को ई.पू. 57 वर्ष में विक्रमादित्य होने पराजित कर खदेड़ दिया था, यह निश्चित है। विदेशी लोग हमारे देश में कदम ही न रख पायें, इस हेतु अपनी सीमाओं से बाहर जाकर उनके ही देश में घुसकर पहले से ही उनका उच्छेदन हमारे पूर्वकालीन पराक्रमी राजाओं ने तब-तब क्यों नहीं किया? इस बात पर मेरे मन में रोष तो रहा ही, किन्तु देश में आये विदेशी होने पराजित कर खदेड़ दिया था, यह निश्चित है। विदेशी लोग हमारे देश में कदम ही न रख पायें, इस हेतु अपनी सीमाओं से बाहर जाकर उनके ही देश में घुसकर पहले से ही उनका उच्छेदन हमारे पूर्वकालीन पराक्रमी राजाओं ने तब-तब क्यों नहीं किया? इस बात पर मेरे मन में रोष तो रहा ही, किन्तु देश में आये विदेशी शकों को विक्रमादित्य द्वारा खदेड़ दिये जाने की वह घटना पराक्रम की कसौटी पर लेश मात्र भी कम नहीं उतरती।। शकों को विक्रमादित्य द्वारा खदेड़ दिये जाने की वह घटना पराक्रम की कसौटी पर लेश मात्र भी कम नहीं उतरती।।


आज सम्भवतः यह संवत्सरसंस्थापक विक्रमादित्य कौन-सा था? यह विवाद का विषय होगा और सचमुच ही चार-पाँच विक्रमादित्य इस देश में पराक्रमी राजा हो भी गये हैं। एक विक्रमादित्य हैचन्द्रगुप्त द्वितीय। चन्द्रगुप्त प्रथम वह मौर्यवंशीय है जिसने एलेकजांडर का पराभव कर, ग्रीक-आक्रमण का समूल उच्छेद किया। चन्द्रगुप्त द्वितीय गुप्तवंश का था, जिसने विक्रमादित्य नाम धारण किया। दूसरा विक्रमादित्य है-ई.पू. 57 वें वर्ष में संवत्-प्रवर्तक। तीसरा विक्रमादित्य है-ईसा की चौथी-पाँचवीं शताब्दी के सन्धिकाल L] आज सम्भवतः यह संवत्सरसंस्थापक विक्रमादित्य कौन-सा था? यह विवाद का विषय होगा और सचमुच ही चार-पाँच विक्रमादित्य इस देश में पराक्रमी राजा हो भी गये हैं। एक विक्रमादित्य हैचन्द्रगुप्त द्वितीय। चन्द्रगुप्त प्रथम वह मौर्यवंशीय है जिसने एलेकजांडर का पराभव कर, ग्रीक-आक्रमण का समूल उच्छेद किया। चन्द्रगुप्त द्वितीय गुप्तवंश का था, जिसने विक्रमादित्य नाम धारण किया। दूसरा विक्रमादित्य है-ई.पू. 57 वें वर्ष में संवत्-प्रवर्तक। तीसरा विक्रमादित्य है-ईसा की चौथी-पाँचवीं शताब्दी के सन्धिकाल मे मंदोसर में हूणों का परिपूर्ण पराभव करने वाला यशोधर्म। इसी प्रकार बङ्गीय शशाङ्क राजा ने भी विक्रमादित्य विरुद धारण किया। दक्षिण का शालिवाहन तो विक्रमादित्य नाम से ख्यात है ही। ऐसे ये अनेक-अनेक विक्रमादित्य हमारे देश में रहे। इनमें से जिसके आज दो हजार वर्ष पूरे होने का उत्सव हम मना रहे हैं, उस विक्रमसंवत् का संस्थापक विक्रमादित्य कौन सा? यह निर्धारण करना निश्चय ही महत्त्वपूर्ण है। परन्तु यह विषय इतिहास-संशोधन का है। एक ही विरुद 'विक्रमादित्य' पर यदि भिन्न-भिन्न पाँच व्यक्तियों का अधिकार दर्शाये जाने का गड़बड़ झाला भी यदि दिखाई देता है तो यह भूषणास्पद ही माना जा सकता है। विक्रमादित्य कितने हुए? शिवाजी एक हैंया दो? ऐसे विवाद हमारे इतिहास में यदि प्रचलित रहे भी, तो मुझे तो उसमें किसी भी प्रकार की कमतरता कतई नहीं दिखाई देती। क्योंकि एक से ख्यातनाम अनेक महापुरुष निर्माण करने की कूबत हमारी हिन्दू-जाति में है। यकीनन यही खरे गर्व की बात है। उत्कृष्ट गुणशाली एक समान अनेक नररत्न जिनमें उत्पन्न होते हैं, उनमें, उन नररत्नों के वृत्तान्त की निश्वासक गणना न भी रही और संशोधकों का शोध-विषय बनने जितना विकट घोटाला हो भी गया तो उसमें लाञ्छनास्पद मानने जैसा वस्तुतः कुछ भी नहीं है।


नररत्नों की ऐसी खदान के कारण हमारे सामने कौन सा उत्सव मनाना और कौन सा नहीं? के स्थान पर किस-किस दिन मनाना, यही प्रश्न उठ खड़ा होता है। वस्तुतः यदि सभी के उत्सव मनाने का मनाने का मन बनाया जाये तो वर्ष के सभी दिवस भी पूरे नहीं पड़ेंगे और यह स्थिति तो केवल इतिहास-निर्दिष्ट व्यक्तियों की है। यदि इसमें राम-कृष्ण आदि समस्त ख्यात अवतार तथा पुराणों में वर्णित इतर भी अनेक बड़े-बड़े अवतार भी सम्मिलित किये जायें तब तो कहना ही क्या ! हेमाद्रि ने “चतुर्वर्गचिन्तामणि' नामक ग्रन्थ रचा। इस ग्रन्थ के व्रतखण्डभाग में वर्ष भर के हजारों व्रत बताये हैं, किन्तु इतने व्रत किये जायें तो कब? यही बड़ा सवाल उठता हैस्थिति कुछ वैसी ही यहाँ भी है। ऐसा कहा जाता है कि जब “धर्मसिन्धुकार' या ''निर्णयसिन्धुकार'' को प्रश्न पूछा गया-ये सब व्रत आपने किये? तो उत्तर मिला यदि ये सब व्रत मैंने किये होते तो ग्रन्थ लिख ही नहीं पातामैंने तो ये बता दिये। इनमें से जो भी सम्भव हो सके, तुम्हें करने चाहिए। प्रस्तुत सन्दर्भ में भी यही बात लागू होती है। हमें भी यथासम्भव उन-उन उत्सवों को मनाना चाहिए'' विक्रमोत्सव अवश्य मनाना चाहिए। विक्रमद्विसस्राब्दि के अवसर का महत्त्व हिन्द की संस्कृति के विगत वैभव की स्मृति के रूप में विशिष्ट हैसाथ ही विक्रम की उज्जयिनी का नकेवल धार्मिक अपितु प्राचीन वैभव हीसाक्षी के रूप में भी ऐतिहासिक महत्त्व भी तो है ही।


इन दो हजार वर्षों के सुदीर्घ समय के अनन्तर, अनेक विदेशी उपद्रवों का विनाश करते हुए आज भी उज्जयिनी में एक हिन्दू संस्थानिक का ही शासन है। यह तथ्य हिन्दू-राष्ट्र की जातिगत संलग्रता का, प्रबल पराक्रम का तथा दुर्दान्त जीवनी-शक्ति का प्रोत्साहक प्रमाण हैसोचा जाये तो, वहाँ के वर्तमान महाराज जीवाजीराव शिन्दे सम्राट विक्रमादित्य के ही राजकीय वारिस हैं और इसीलिए हिन्दुस्तान में सर्वत्र विक्रमादित्य का उत्सव मनाया जाना आवश्यक होते हुए भी उस निमित्त चिरस्थायी स्मृति सँजोने का कार्य करने का अधिकार तथा कर्त्तव्य ग्वालियर राज्य के अधिपति महाराज जीवांजीशव शिन्दे का है।


विश्व में विक्रमादित्य एक संवत्सरसंस्थापक था। वह स्वयं एक चक्रवर्ती सम्रा होते हुए भी विद्वान्, रसिक तथा प्रजाहित तत्पर था। अत्यन्त श्रेष्ठ कवि, ज्योतिषी, कोषकार, दार्शनिक, शिल्पकार आदि उसके राज्य में रहे। श्री तथा सरस्वती दोनों का ही दिव्य वरदहस्त उस सम्राट् पर रहा। इन समस्त गुणों के कारण विक्रमादित्य नामक यह विभूति हमें तो गौरवास्पद लगती ही है, संसार में किसी को भी गौरवास्पद लगनी चाहिए। किन्तु केवल सम्राट्, वीर, विद्वान आदि गुणों की अपेक्षा भी हमारे हिन्दू राष्ट्र को विक्रमादित्य जो गौरवास्पद लगता है, वह तो इसीलिए कि इसने शक-हूण जैसे विदेशियों की सत्ता नेस्तनाबूद कर, एक के बाद एक रणागणों में उनका पराभव करते हुए, भारतवर्ष को स्वतन्त्र बनाया और एक प्रबलतम दिग्विजयी हिन्दू-सम्राज्य का संस्थापन किया। हमारे हिन्दुस्तान के इतिहास में सम्राट् तो अनेक हुए, शूरवीर भी बहुत हुए। परन्तु विक्रमादित्य की कृतज्ञ-स्मृति आज दो हजार वर्षों से हमारे हिन्दू राष्ट्र में जो जीवन्त रही है, वह तो उसके सम्राट् पराक्रमी आदि विविध विशेषणों के लिए न होकर, मुख्यतः विक्रमादित्य की ''शकारि' उपाधि के लिए, इस अतुलनीय विक्रम के लिए ही है।