भारतीय परम्परा में अद्वितीय शासक रहे राजा विक्रमादित्य

कृत लेख सहित दो सील और तीन सिक्के हैं। कृत विक्रम का एक सिक्का है। विक्रम उज्जयिनी का एक सिक्का है। कृत उज्जयिनी की एक सील है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि कृत उज्जैन का है। विक्रम उज्जैन का है। और कृत-विक्रम अभिन्न है जो ईसवी पूर्व प्रथम सदी में रहे। विक्रम के सिक्के पर दौड़ता अश्व नाग सिक्के के दौड़ते अश्व जैसा ही है।


सम्वत् प्रवर्तक राजा विक्रमादित्य भारतीय परम्परा में अद्वितीय शासक रहे हैं। 2069 वर्ष पूर्व उन्होंने जिस संवत् का प्रवर्तन किया था था वह कृत्य, मालव अथवा विक्रम या विक्रमादित्य के नाम से समय-समय पर प्रचलित रहा। आज भी वह विक्रम के नाम से विख्यात है।


उज्जैन से 'कृत' की मिट्टी की दो मुद्राएं (सील) प्राप्त हुई हैं। एक पर कुतस (कृतस्य) तथा दूसरी पर राजोसिरि व कतस उजेनिय (स) (राज्ञः श्री व (विक्रम) कृतस्य उज्जयिन्याः) ईस्वी पूर्व प्रथम शती की ब्राह्मी लिपि में लिखा है। एक सिक्के पर ईसवी पूर्व प्रथम शती की ब्राह्मी में 'विक्रम' और निम्नभाग परवतन्द्र (पर्वतेन्द्र) कदस (कृतस्य) अंकित है। इस एक सिक्के सक ही प्रमाणित हो जाता है कि कृत, विक्रम और पर्वतून्द्र अभिन्न है। अतः यह भी स्पष्ट हो जाता हैकि पूर्वोक्त कृत की सील विक्रम की ही सील है। (विन्ध्यादि) पर्वत क्षेत्र के स्वामी होने से पर्वतेन्द्र नाम या उपाधि से भी अभिहित होते थे।



संवत् 282 से 481 तक के दस शिलालेखों में संवत् का नाम 'कृत' पाया जाता है। 461 संवत् के मन्दसौर शिलालेख में मालवगण नामक संवत् का नाम कृत बताया गया है। अतः कृत और मालव एक ही संवत् के दो नाम हैं। उन शिलालेखों में मालव गण की स्थापना (मालवा नां गणस्थित्या याते) से वर्ष गणना बताई गयी है। मालवानां गणस्य जयः 'अथवा मालवानां जयः लेख सहित ईसवी पर्व के कई सिक्के प्राप्त होते हैं। उनसे स्पष्ट होता है कि मालवगण कीस्थापना से इस संवत् और 794 के लेख में विक्रम संवत्सर लिखा पाया जाता है। फिर तो विक्रमकाल, विक्रमसंवत., विक्रमांक संवत्, सहित विभिन्न नाम शिलालेखों, सिक्कों तथा पुस्तकों में पाये जाते हैं।


अतः सील, सिक्कों और शिलालेखों से यह निर्धान्त रूप से स्पष्ट हो जाता है कि कृत और विक्रम अभिन्न हैं। मालव संवत् भी कृत और विक्रम का ही एक नाम था। अत् कृत, मालव, विक्रम एक ही संवत् के भिन्न-भिन्न नाम रहे यह प्रमाणित हो जाता है। सत्य युग, पर्याप्त, शक्ति, निवारण, तृप्ति, यथेच्छ, विहित, हिंसित इत्यादि अर्थों में नपुंसक लिंग में विभिन्न कोषों में कृत शब्द दिया गया है। परन्तु लिंगपुराण (65/63) में शिवजी का नाम 'कृत' पुलिंग में दिया गया है।


संवत्सरः कृतों मन्त्रः प्राणायामःपरन्तपः।


उसमें शिव का कृत के साथ ही संवत्सर नाम भी दिया गया है। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि पुराणाकार संवत् को कृत भी कहना चाहता है। विक्रम वाचक कृत पुलिंग शब्द है। एक सिक्के पर तीव्र गति से दौड़ता हुआ अश्व हैउसके या तो पंख है अथवा जयध्वज है। वेदिका वृक्ष के दायीं और (सि) रि (विक्रम) श्री विक्रम लिखा है। व की मात्रा का ऊपरी भाग मुद्रा के किनारे से बाहर रह गया है। वेदिका वृक्ष के बायीं ओर 'उजयि (नी)' नगर नाम अंकित हैयह लिपि ईसवी पूर्व प्रथम शती की है। वृक्ष कल्पवृक्ष हो सकता है।


इस एक सिक्के से स्पष्ट है कि श्री विक्रम उज्जैन के ही थे। बिना सवार का दौड़ता अश्व स्पष्ट करता है कि वह उज्जैन के राजा विक्रम का अश्व दिग्विजय के लिए विभिन्न राज्यों की तीव्र गति से यात्रा कर रहा है और राजा विक्रम ने अश्वमेध किया था। अश्वमेध करके वे चक्रवर्ती हो गये थे। एक सिक्के पर बारह अरों का चक्र है। इस पर भी ईसवी पूर्व की ब्राह्मी में विक्रम और 'परवतन्द्र (पर्वतेन्द्र) कदस (कृतस्य) अंकित है। चक्र भी पर्वतेन्द्र विक्रम को चक्रवर्ती सम्राट् के रूप में प्रतिष्ठित करता है।


कृत लेख सहित दो सील और तीन सिक्के हैं। कृत विक्रम का एक सिक्का है। विक्रम उज्जयिनी का एक सिक्का है। कृत उज्जयिनी की एक सील है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि कृत उज्जैन का है। विक्रम उज्जैन का है और कृत-विक्रम अभिन्न हैजो ईसवी पूर्व प्रथम सदी में रहेविक्रम के सिक्के पर दौड़ता अश्व नाग सिक्के के दौड़ते अश्व जैसा ही हैनाग सिक्के के घोड़े का सिर झुका हुआ है जबकि विक्रम के सिक्के का सिर दौड़ने की मुद्रा में आगे की ओर तना हुआ और खिंचा हुआ है।


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