ग्राम फीना (बिजनौर) की स्वतंत्रता आंदोलन में सहभागिता भाग-2

भारत में स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन का लंबा इतिहास रहा है। विभिन्न पाठ्य पुस्तकों तथा अन्य पुस्तकों में हम यह इतिहास पढ़ते हैं। अत्यधिक विस्तृत होने के कारण स्वतंत्रता आंदोलन में बड़े नेताओं तथा बड़ी जगहों काही विवरण मिलता है। देश के दूर-दराज इलाकों, ग्रामीण क्षेत्रों में स्वतंत्रता आंदोलन किस रुप में और किस गति से चला तथा वहाँ के गुमनाम सेनानियों ने किस प्रकार का संघर्ष किया यह विवरण बहुत कम पढ़ने को मिलता है। इसी विषय पर शोधकरते हुए प्रस्तुत लेखकलेखक इं. हेमन्त कुमार जी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जनपद बिजनौर में स्थित, अपने गाँव फीना में घटित हुईं स्वतंत्रता आंदोलन की गतिविधियों को कहानी के रूप में लिखा है। यह परिशोधनशील लेख उनके द्वारा लिखी जा रही 'ग्राम फीना का परिचय एवं इतिहास' नामक पुस्तक का अंश है। इस कहानी में ग्राम फीना जैसे दूरस्थ क्षेत्रों में हुए स्वतंत्रता आंदोलन के अनेकानेक रंगों, पहलुओं तथा सामाजिक मनोवृतियों की झलक मिलती है, जिनका ऐतिहासिक रुप से अत्यधिक महत्व है।



'दी कोर के जनवरी2019 अंक में इस कहानी का प्रथम भाग प्रकाशित हो चुका है, जिसमें ग्राम फीना में कांग्रेसकी स्थापना से लेकर 16 अगस्त 1942 को दोपहर तक घटित हुई, स्वतंत्रता आंदोलन संबंधित घटनाओं को प्रस्तुत किया गया था। अंग्रेजों भारत छोड़ो आन्दोलन से प्रेरित हो इस क्षेत्र के अग्रणी क्रांतिकारियों ने 16 अगस्त 1942 को जनता तथा सभी स्वतंत्रता सेनानियों को नूरपुर थाना पर बुलाकर तिरंगा फहराने के लिए इकट्वा किया था। पुलिस ने थाने पर तिरंगा फहराने से रोकने के लिए क्रांतिकारियों पर यथा-सम्भव गोलीबारी तथा लाठीचार्ज किया। इसके बावजूद क्रांतिकारियों ने दोपहर लगभग 1.00 बजे थाने पर तिरंगा लगा दिया, परंतु तिरंगा फहराने के लिए सबसे पहले आगे बढ़ने वाले परवीन सिंह पुलिस की गोली से मरणासन्न हो गए तथा रिक्खी सिंह गंभीर रूप से घायल हो गए थे। इस अंक के प्रस्तुत लेख में 16 अगस्त 1942 के दिन दोपहर के बाद की घटनाओं से लेकर अगले लगभग 1 साल तक घटित हुई घटनाओं का इतिहास सम्मत वर्णन हुआ है। –सम्पादक


नोट : अगले अंकों में हम इस एतिहासिक एवं शोधपूर्ण कहानी के शेष भाग को प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे जिसके शीर्षक अनमानतः निम्नवत होगें : । पुलिस के र्दुव्यवहार से जनता की सोच में परिवर्तन।



  • पुलिस के र्दुव्यवहार से जनता की सोच में परिवर्तन।

  • फीनावासियों को मशीनगन से मरवाने के आदेश।

  • क्रांतिकारियों की गिरफ्तारी की कुछ उल्लेखनीय घटनाएँ।

  • पुलिस उत्पीड़न की पराकाष्ठा एवं क्रांतिकारियों का सरकार के नाम इश्तेहार।

  • क्रांतिकारियों द्वारा खुद को गिरफ्तार कराना।

  • क्रांतिकारियों की रिहाई एवं देश की स्वतन्त्रता के संकेत।


क्रांतिकारियों को पकड़ने के लिए पुलिस की छापामारी का क्रम


16 अगस्त 1942 को पुलिस के भारी विरोध के बावजूद आंदोलनकारियों ने दोपहर एक-डेढ़ बजे के आस-पास नूरपुर थाने पर तिरंगा लगा दिया था। इस प्रयास में परवीन सिंह वहीं शहीद हो गए, तथा रिक्खी सिंह गम्भीर रूप से घायल हुए थे। भारी शोर- शराबे, भीड़, थाने की सीमा पर स्थित खाई-चाहरदीवारी तथा बहुत तेजी से घटे घटनाक्रम के कारण वहाँ मौजूद बहुत कम लोग ही इन दोनों के बारे में जान पाए। उधर पुलिस आन्दोलनकारियों के सम्भावित क्रोध से सशांकित हो उठी, उसे जान का खतरा महसूस हुआ, इससे पुलिस ने लाठीचार्ज तथा फायरिंग शुरू कर दी। थाने पर हुई लाठीचार्ज में फीना के क्षेत्रपाल सिंह के सिर तथा पैर में चोट आई थी। इस समय बारिश भी तेज हो गई। तिरंगा फहर ही चुका था। इन बातों के मिले-जुले प्रभाव से आन्दोलनकारी वापिस जाने लगे, इनको लौटते देख पुलिस की जान में जान आई। जब बहुत थोड़े लोग बचे तो पुलिस ने कुछ लोगों को तिरंगा फहराने वालों के नाम जानने के लिए गिरफ्तार कर रोक लिया। शाम के दो-ढाई बजे तक थाना परिसर तथा नूरपुर की सड़कें खाली हो चुकी थीं।


16 अगस्त 1942 को सुबह लगभग आठ बजे से क्रांतिकारी नूरपुर आना शुरू हो गए थे, तब से लेकर शाम के ढाई बजे तक थाना पुलिस भारी ऊहापोह से गुजरती रही, आन्दोलनकारीयों की भारी भीड़ देखकर उसको कुछ सूझ नहीं रहा था। दो- ढाई बजे के आस-पास जब सभी आन्दोलनकारी चले गए, तब जाकर पुलिस ने राहत की सांस ली और उसे ठण्डे दिमाग से सोचने का मौका मिला। थाना प्रभारी ने मार्गदर्शन लेने के लिए तुरंत इस घटना की खबर जिला कलेक्टर तथा पुलिस अधीक्षक के पास बिजनौर भिजवाई, तथा आंदोलनकारियों के प्रति जबाबी कार्यवाही की योजना बनाने लगा। थाना प्रभारी ने तिरंगा फहराने की बात सरकारी रिकार्ड मे दर्ज कर ली। सरकारी कागजों में यह घटना नूरपुर थाना केस' के नाम से भी जानी जाती है।



फीना के महान स्वतंत्रता सेनानी डॉ. भारत सिंह का पुश्तैनी घर


आसमान में बादल छाए हुए थे इस कारण रोशनी कम हो गई थी और शाम होने में भी मात्र 2.30 या 03 घंटे का समय शेष था। इसलिए थाना प्रभारी ने दिन के शेष बचे घंटो का उपयोग करने की ओर ध्यान दिया। तिरंगा फहराने के कार्यक्रम के सूत्रधार रहे लोगों को पकड़ना बहुत जरूरी था, परंतु यह स्पष्ट नहीं था कि नूरपुर क्षेत्र में यह कार्यक्रम किसने आयोजित कराया था। एक तो कार्यक्रम की पूर्व सूचना न मिल पाना पुलिस की बड़ी विफलता थी दूसरे अब इसके सूत्रधार लोगों को भी पुलिस नहीं पकड़ पाई तो यह और बड़ी विफलता मानी जाएगी। इसी दिमागी रस्साकशी में थाना प्रभारी ने सोचा कि उनउन जगहों पर तुरन्त जाया जाए जहाँ निश्चित तौर पर कोई ना कोई सूत्र मिलने की प्रबल सम्भावनाएँ हैं इसी बीच कुछ सिपाहियों ने प्रभारी को संकेत किया कि अमरोहा मार्ग से जो सेनानियों का दल आया था वह बहुत तेज-तर्रार तथा आंनदोलन के प्रति समर्पित था, साथ ही उस सड़क पर आना-जाना भी आसान है, क्योंकि दूसरी सड़कों की तुलना में उसकी हालत अच्छी है। इसलिए अन्य गाँवों में जाने की बजाय अमरोहा मार्ग पर बसे गावों पर छापा मारा जाए, निश्चित तौर पर हमें वहाँ कुछ लोग मिल जाएंगे, जो पुख्ता सुराग दे देंगे, कि तिरंगा फहराने का कार्यक्रम किसके द्वारा आयोजित तथा संचालित किया गया था। इस बात पर गौर करते हुए पुलिस ने 2-3 दल बनाएँ और छापा मारने के लिए आपस में गाँव बाँट लिए। थाना प्रभारी स्वयं घोड़े पर सवार होकर कुछ सिपाहियों के साथ अमरोहा मार्ग पर चल पड़ा। नूरपुर से निकलते-निकलते इस पुलिस दल को शाम के लगभग 4.30 बज गए थे। सबसे पहले तंगरोला, जाफराबाद कुरई और लिंडरपुर गाँव मिले, यहाँ के लोगों ने कहा कि हमारे गाँव से कौन लोग नूरपुर गए थे यह तो हमें नहीं पता, परंतु अधिकांश सेनानी रतनगढ़ और ग्राम फीना की दिशा से आए थे। क्रांतिकारीयों को अंजाम भुगतने की धमकी देते हुए पुलिस दल तेजी से रतनगढ़ की तरफ बढ़ा। रतनगढ़ में भी लोगों ने लगभग यही कहा कि हमारे गाँव से कौन-कौन लोग नूरपुर गए थे, यह तो हमें नहीं मालूम, परंतु ज्यादातर लोग फीना गाँव की दिशा से आए थे। लोगों द्वारा फीना का बार-बार नाम लिए जाने से पुलिस दल का ग्राम फीना के क्रांतिकारीयों पर शक गहरा हो गया और वे तेजी से उस तरफ बढ़े।



उधर तिरंगा फहराने के बाद फीना सहित अन्य गाँवों के सक्रिय क्रांतिकारी पुलिस से बचने के लिए अपने-अपने विवेक के अनुसार यहाँ-वहाँ जाकर भूमिगत हो गए। नूरपुर से सभी क्रांतिकारी लगभग भागते हुए अपने-अपने ठिकाने पहुँचे थे। अधिकांश अपने गाँव के जंगलों में छिपकर अंधेरा होने का इन्तजार करने लगे। लगभग सभी क्रांतिकारी, पुलिस से औझल रहना चाहते थे। बसंत सिंह उर्फ वॉलिंटियर साहब, रणधीर सिंह, प्रताप सिंह फीना के उत्तर-पूर्व दिशा में स्थित गन्ने के खेतों में पहुँचकर छिप गए थे। कुछ को छोड़कर फीना आने वाले सेनानी मुख्य रास्ते की बजाय खेतों से गुजर कर ही गाँव पहुँचे थे, कई सेनानी ग्राम धारूपुर एवं उमरा के खेतों से गुजर कर फीना पहुँचे थे। क्योंकि उन्हें आशंका थी कि पुलिस पीछा करती हुई अमरोहा मार्ग से आ सकती है। कुछ लोग काफी जल्दी फीना के पास पहुँच गए थे, और खेतों-जंगलों में रुक गए थे, ये अंधेरा होने पर ही घर जाना चाहते थे। कुछ सेनानी ऐसे भी थे, जिन्होंने सोचा कि हम भारी भीड़ के बीच में खड़े थे, इसलिए पुलिस हमारा पता लगा नहीं लगा पाएगी, यह सोच वे रात में अपने घर पर ही सो गए, और मुखबिरी के कारण पुलिस के छापे में पकड़े गए 



डॉ भारत सिंह को उनके सहयोगियो द्वारा गोहावर ले जाना 


पूर्व में जिक्र किया गया है कि 12.00 बजे के आस-पास सि फीना की तरफ से नूरपुर आने वाले स्वतंत्रता सेनानियों के दल को पुलिस ने चाँदपुर तिराहे पर बैरिकेटिंग लगाकर रोक लिया था तथा उनपर लाठीचार्ज किया था। क्रांतिकारीयों ने इस लाठीचार्ज का यथासम्भव विरोध किया। विरोध करते समय डॉ. भारत सिंह के सिर में बड़ी चोट लग गई थी। सिर से तेज खून बहने लगा, उनके साथियों ने दूब घास को चबाकर घाव पर रखा तथा किसी के गले में पड़े अंगौछे को लेकर, पट्टी की तरह बनाते हुए, डॉ. भारत सिंह के सिर से ठुड्डी के नीचे घुमाकर लाते हुए बाँध दिया। खून बहना कम हो गया, परन्तु रूका नहीं। तत्काल इलाज की आवश्यकता थी, इसके लिए मौजूद साथियों ने आपस में सलाह-मशविरा करके उनको गोहावर गाँव भेजने का निर्णय लिया। फीना भेजना इसलिए मुनासिब नहीं समझा गया क्योंकि एक तो पुलिस द्वारा क्रांतिकारीयों की पकड़-धकड़ की ऊहापोह में इलाज ठीक से नहीं हो पाता दूसरे गोहावर गाँव, फीना की तुलना में नूरपुर से दो किलोमीटर नजदीक था। इन बातों के साथ-साथ गोहावर में डॉ. भारत सिंह की ससुराल भी थी और इनके ससुर मेघराज सिंह वहाँ के मुखिया थे। डॉ. भारत सिंह के सहयोग के लिए दो क्रांतिकारीयों को उनके साथ भेजा गया। बताया जाता है कि इनमें से एक सहयोगी 'बीच गाँव वालों के कुटम्ब से थे, जो डॉ. भारत सिंह के मित्र थे। इनका नाम नहीं ज्ञात हो पाया है।


नूरपुर से लगभग पौने आठ किलोमीटर चलने के बाद डॉ. भारत सिंह बेहोश हो गए थे, शायद सिर में लगी गंभीर चोट के कारण ऐसा हुआ था। यहाँ से गोहावर लगभग 300 मीटर दूर बचा था। जहाँ भारत सिंह को बेहोशी आई थी, वहाँ आस-पास अमरूद के बाग थे। बाग में एक झोपड़ी बनी हुई थी। हल्की-हल्की बारिश भी हो रही थी। बेहोश भारत सिंह को झोपड़ी में लेटाकर एक साथी इनके ससुर मेघराज सिंह को बताने चले गए, और लगभग आधा घण्टा बाद कुछ लोगों के साथ बैलगाड़ी लेकर लौटे। बैलगाड़ी में लेटाकर भारत सिंह को चिकित्सक के पास ले जाया गया, जहाँ उपचार के दौरान इनके सिर में सात-आठ टांके आए। उपचार होतेहोते रात के लगभग 10.00 बज गए थे। पुलिस की गिरफ्तारी से बचने के लिए इन्होंने रात गोहावर गाँव के जंगलों में ही गुजारी।



होरी सिंह 'इंड' तथा मुरारी सिंह के सहयोग से चोटिल क्षेत्रपाल सिंह का ग्राम मुकरपुरी पहुचना


तिरंगा फहराने के बाद स्वतंत्रता सेनानी अपने-अपने गंतव्य की ओर जाने लगे। क्षेत्रपाल सिंह ने गिरफ्तारी से बचने के लिए फीना जाने की बजाय ग्राम मुकरपुरी जाने का निर्णय लियाथाने पर जमा भीड़ को तितर-बितर करने के लिए पुलिस द्वारा किये गए लाठीचार्ज में क्षेत्रपाल सिंह को काफी चोट लग गई थी। इस कारण वह खुद नहीं चल पा रहे थे, सहयोग के लिए होरी सिंह 'डुड तथा मुरारी सिंह ने इनके साथ जाने का निर्णय लिया। ये लोग ताजपुर की ओर चलने लगे। इनके आगे-पीछे भी अनेक सेनानी अपने-अपने गन्तव्य पर जा रहे थे। सबसे पहले मुरारी सिंह ने क्षेत्रपाल सिंह को अपने कंधे पर बैठाकर चलना शुरू किया, इनके थक जाने पर होरी सिंह 'डुड ने क्षेत्रपाल सिंह को अपने कंधे पर बैठाया, तथा इनके भी थक जाने पर, वहाँ जा रहे अपरिचित सेनानियों ने उनको अपने कंधे पर बैठाया।



ताजपुर आने पर ये लोग कुछ समय के लिए रुके तथा थोड़ा विश्राम करने के बाद मुकरपुरी की तरफ चलने लगे। पन्द्रह मील से भी अधिक लम्बी और कठिन यात्रा करके ये तीनों लोग मुकरपुरी पहुँचे। वहाँ ये लोग बसंत सिंह के ठिकाने पर रुके। बसंत सिंह ग्राम मुकरपुरी के प्रतिष्ठित तथा सक्रिय स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्होंने इन तीनों को सुरक्षित जगह पर ठहराकर क्षेत्रपाल सिंह का इलाज कराया। 15-20 दिनों में क्षेत्रपाल सिंह की चोट काफी ठीक हो गई थी, इसलिए होरी सिंह 'डुड' एवं मुरारी सिंह फीना वापस चले आए। जबकि क्षेत्रपाल सिंह लगभग डेढ़ महीना बाद अपने गाँव फीना पहुँचे।



कुछ सेनानियो फ़ीना का  के जंगल में रुकना


कुछ क्रांतिकारियों ने अपने गाँव फीना में ही छुपकर रहना तय किया। यह दल नूरपुर से देर शाम को गाँव पहुँचा और सम्भावित गिरफ्तारी से बचने के लिए ग्राम फीना के उत्तर-पूर्व दिशा में स्थित गन्ने के खेतों में छिप गया। संभवतया इस दल में बसंत सिंह, जयदेव सिंह, दिलीप सिंह, प्रताप सिंह आदि क्रांतिकारी भी थे। डेढ़ महीने के बाद होरी सिंह 'डुड' तथा क्षेत्रपाल सिंह भी इनके साथ आकर रहने लगे थे। इस दल के सदस्य जरूरत पड़ने पर अन्य स्थानों पर आते-जाते रहते थे। फीना के अन्य सेनानी कहाँ गए तथा कहाँ छुपकर रूके, इसका विवरण नहीं मिल पाया।


उधर नूरपुर थाना पर घटी घटनाओं की खबर को जिला कलेक्टर के पास पहुँचते- पहुँचते शाम के छः-सात बज गए, क्योंकि इसे पत्र के माध्यम से भिजवाया गया था, टेलिफोन लाईनो को क्रांतिकारी सुबह नूरपुर जाते समय ही काट चुके थे। थाने पर तिरंगा फहराए जाने को जिला कलेक्टर ने गम्भीर प्रसाशनिक विफलता तथा अशुभ संकेत माना और अगले दिन यानि 17 अगस्त 1942 को पुलिस अधीक्षक और मय फोर्स नूरपुर थाने एवं क्षेत्र का दौरा करने की खबर थाना प्रभारी को भेज दी, क्योंकि अन्धेरे और बारिश के कारण तत्काल नूरपुर के लिए चल देना कठिनाई भरा था।


ग्राम फीना में पुलिस का छापा


जब नूरपुर पुलिस 16 अगस्त 1942 को अपने दल के साथ ग्राम फीना में पहुँची तो शाम के लगभग छः बज चुके थे और अंधेरा-सा हो गया था। गाँव में पहुँचकर पुलिस ने सबसे पहले बाहर की तरफ स्थित घरों में पूछताछ की। कुछ लोग पुलिस के आस-पास जमा हो गए। इसी बीच नूरपुर से चलकर कुछ सेनानी दुर्योग से उसी रास्ते एवं स्थान से गाँव में प्रवेश करने लगे जहाँ पुलिस खड़ी थी पुलिस को देखकर यह लोग पीछे मुड़कर भागे। यह देख पुलिस ने इनका पीछा करके कुछ को पकड़ लियाकुछ लोग भागने में सफल हो गए, इनमें बलकरन सिंह भी थे।


पुलिस ने फीना में घूमकर जितना हो सका क्रांतिकारियों के नाम एवं पता लगाने और उनको गिरफ्तार करने का प्रयास किया। एक-डेढ़ घंटा फीना में रहने के बाद पुलिस वापस नूरपुर को चली गई। पुलिस अपने साथ कुछ क्रांतिकारियों को भी गिरफ्तार करके ले गई थी, जाते-जाते उसने अन्य क्रांतिकारियों के नाम न बताने पर गाँव वालों को सामूहिक तौर पर खामियाजा भुगतने की धमकी भी दी। पुलिस दल के जाने के एक-दो घण्टे बाद आस-पास छिपे ज्यादातर क्रांतिकारी गांव में आ गए।


पुलिस के लाठीचार्ज और गोलाबारी को धता बताते हुए निहत्थे आंदोलनकारियों ने तिरंगा फहराने के लिए जान की बाजी लगा दी और शहादत देते हुए अपना प्रण पूरा कर दिया था, इस घटना से प्रशासन अंदर तक हिल गया था और पुलिस बहुत अपमानित महसूस कर रही थी। निहत्थे लोगों ने तुम्हारी गोली और आग उगलती बन्दूकों के सामने कैसे तिरंगा फहरा दिया? क्या तुमने उन्हें रोकने का प्रयास नहीं किया? क्या गाँधी के अहिंसा के सम्मोहन ने तुम्हें नमक हराम बना दिया? जिला प्रशासन सोच रहा था कि, यदि ब्रिटिश उच्चाधिकारी ऐसे सवाल पूछने लगे, तो हम क्या जबाब देगें? इसलिए प्रशासन ने अपनी साख बचाने के लिए रात में ही क्रांतिकारियों तथा जनता को कड़ा सबक सिखाने की योजना तैयार कर ली, ताकि भविष्य में वे अंग्रेजी शासन के विरुद्ध कोई और आंदोलन करने की न सोचें।


जो क्रांतिकारी जंगलों में छुपे थे, उनके लिए यह रात काफी चुनौतीपूर्ण तथा कष्टभरी थी। सबसे पहले, तेजी से चलकर नूरपुर पहुँचना, वहाँ कई घंटों की भागम- भाग, फिर भीगते और तेज चाल से फीना पहुँचना, सुबह से भूखे रहना, थकान, चारों तरफ घोर अंधेरा और अंजान जगह पर रूकने की मजबूरी, लगातार बारिश का सामना करना एवं भीगना, हर तरफ पानी और नमी होने के कारण बैठने-सोने के लिए जगह न होना जैसी कई दिक्कतों का सामना उनको करना पड़ा।


कुछ ख्वाबों में खेलते हैं, कुछ अरमानों में खेलते हैं।


जिन्हे प्यार है वतन से, वे तूफानों से खेलते हैं।


-चरण सिंह 'सुमन'


पुलिस क्या कार्यवाही कर रही है, गाँव में है अथवा नहीं, इन जैसी बातों का कोई पता नहीं लग पा रहा था। जंगली जानवरों की आहट को भी क्रांतिकारी, पुलिस का आना, मान लेते थे और दौड़ने लगते थेयह रात सभी क्रांतिकारियों ने जागकर तथा स्थान बदलते हुए गुजारी। सबसे ज्यादा परेशानी मच्छरों तथा जहरीले कीड़े- मकोड़ों से थी। जितनी कठिनाई उन्हें पुलिस की लाठी तथा बंदूक से नहीं हुई उससे ज्यादा कठिनाई मच्छरों के डंक से हो रही थी। मच्छरजनित बीमारियों की चपेट में आकर इसी रात बलकरन सिंह कटीर सहित दो अन्य क्रांतिकारीयों को तेज जाड़ा-बुखार आ गया। कहा जाता है कि दो-तीन दिनों में ही इनका निधन हो गया था। क्या ये लोग शहीदों की गिनती में आयेंगे? यह सभी के लिए विचारणीय प्रश्न बना हुआ है।


17 अगस्त की सुबह का इंतजार करना क्रांतिकारियों को काफी लम्बा महसूस हुआ। इसी दिन सुबह-सुबह जिला कलेक्टर तथा पुलिस अधीक्षक, भारी पुलिस-बल के साथ बिजनौर से नूरपुर की तरफ चल पड़े। जब ये लोग ग्राम अखेड़ा के पास पहुँचे तो सड़क अनेक जगहों पर कटी पड़ी थी, इन्होंने सड़क की मरम्मत के लिए जब गाँव वालों से कहा तो उन्होनें भारी पुलिस-बल की मौजूदगी में ही किसी भी प्रकार का सहयोग करने से साफ मना कर दिया। मजबूरी में पुलिस ने खुद ही रास्ता ठीक किया और आगे बढ़ी। दरअसल 15-16 अगस्त 1942 की रात में ग्राम अखेड़ा के निवासी बीरबल सिंह, फुल्लू सिंह, कबूल सिंह, शेर सिंह, उद्दे सिंह, एवं ग्राम नन्हेड़ा के पण्डित बाबूराम शर्मा तथा ग्राम खंडसाल के निवासी नेतराम सिंह ने मिलकर बिजनौर-कोतवाली एवं नेहटौर होकर नूरपुर जाने वाले मार्ग को, अनेक जगहों पर काट दिया था, ताकि जिला हेड क्वार्टर बिजनौर से पुलिस बल आसानी से नूरपुर न पहुँच सके, और तिरंगा फहराने में बड़ी बाधा न पड़े। यह बिजनौर के आम-जन मानस पर अंग्रेजो भारत छोड़ो एवं असहयोग आन्दोलन से गहरे प्रभाव का प्रत्यक्ष उदाहरण था, प्रशासन इस घटना से और अधिक खार खा गया।



17 अगस्त 1942 सुबह सुबह कई  गाँवो में पुलिस की छापेमारी


16 अगस्त 1942 की शाम को ही पुलिस ने अनेक गाँवों में जाकर क्रांतिकारियों के छिपे होने सम्बंधी सूचनाएँ इकट्ठा कर ली थी। इनके आधार पर अगले दिन यानी 17 अगस्त 1942 की सुबह- सुबह पुलिस ने कई गाँवों में छापा मारा। इस छापामारी में गोहावर गाँव में शरण लिए फीना के डॉ. भारत सिंह पकड़े गए। पुलिस फीना में भी पहुँची थी, परंतु कौन-कौन गिरफ्तार हुआ था, इसका विवरण नहीं मिल पाया है।


पुलिस की सघन छापामारी एवं उत्पीड़न


पुलिस ने मन बनाया था कि जितने भी सक्रिय एवं अग्रणी क्रांतिकारी नूरपुर आए थे, उन सभी को पकड़ा जाए, परंतु पुलिस की संख्या, सीमित होने के कारण यह संभव नहीं हो पा रहा था। अतः नूरपुर थाने की पुलिस ने उच्चाधिकारियों से अतिरिक्त फोर्स भेजने का आग्रह किया, जिस पर बिजनौर के विभिन्न थानों तथा जिला मुरादाबाद के कुछ थानों की पुलिस धीरे-धीरे नूरपुर पहुँचने लगी। हालांकि नूरपुर थाना ने बिजनौर हेडक्वार्टर से कुछ सिपाहियों की मॉग 16 अगस्त 1942 की सुबह-सुबह भी की थी, परन्तु वहाँ से भेजा गया पुलिस-दल देर-सवेर ही नूरपुर पहुँच पाया था। एक- दो दिन के भीतर ही आस-पास के थानों की काफी पुलिस नूरपुर पहुँच गयी। गोहावर के क्रांतिकारी नत्थू सिंह पुत्र मुन्ना सिंह पुलिस की गोली से घायल हो गए थे, और इसी अवस्था में घर पहुँचे। कुछ समय व्यतीत होने पर किसी ने मुखबिरी कर दी और पुलिस ने आकर इनको घायल अवस्था में ही गिरफ्तार कर लिया।



पुलिस ने गोपनीय सूचनाओं के आधार पर क्रांतिकारियों को उनके गाँव, खेत, जंगल, मित्र, पड़ोसी एवं रिश्तेदारों के यहाँ बार- बार छापा मारकर गिरफ्तार करने के प्रयास में दिन-रात एक कर दिया। तीन-चार दिनों के अन्दर ही असंख्य लोगों से पूछताछ की गई और लगभग डेढ़ सौ लोगों को गिरफ्तार किया गया, इनमें लगभग 32 सक्रिय क्रांतिकारी भी थे। परन्तु गिरफ्तार अन्य लोग, गाँव के सामान्य निवासी थे, जिनका नूरपुर थाना केस से कोई वास्ता नहीं था। ज्यादातर बड़े क्रांतिकारी अज्ञात स्थानों पर छिप गए थे, और उनकी जानकारी किसी को नहीं थीइसलिए पुलिस के अथक प्रयासों के बाद भी नूरपुर क्षेत्र के लगभग तीन-चौथाई सक्रिय एवं अग्रणी क्रांतिकारी पकड़ से बाहर थेइस विफलता से पुलिस खीज उठी, उसने आशंका के आधार पर संभावित क्रांतिकारियों के घर देर-सवेर जाकर छापा मारना शुरू कर दिया। ग्राम फीना, गोहावर, असगरीपुर, ढेला अहीर से बड़ी संख्या में लोग नूरपुर पहुँचे थे, इसलिए इन गाँव में खौफ पैदा करने के लिए अंग्रेजों ने विशेष अभियान चलाया। जिन पर शक था, खासकर कांग्रेसीयों के घरों में लूटपाट व तोड़-फोड़ की गयी। अनेक घरों में पुलिस ने रजाई-गद्दे, खाट, बर्तन, अनाज तक नष्ट कर दिये। घर में रखे आटे, दाल, साबुत अनाज तथा खाने-पीने की अन्य सामग्रीयों में पुलिस द्वारा पानी डाल दिया गया, ताकि खाने के लाले पड़ जाए। सफलता मिलती न देख शक के आधार पर पुलिस ने नामचीन कांग्रेसियों एवं अन्य सेनानियों के घरों पर अनेक बार गोली भी दागी। ग्राम फीना के पुराने कांग्रेसी क्षेत्रपाल सिंह दिसौन्धी तिरंगा प्रकरण में अग्रणी कार्यकर्ता थे, यह बात पुलिस समझ गयी थी, इसलिए उसने इनके मकान पर कई बार गोलियाँ बरसाई। काफी समय तक दीवारों पर दसों गोलियों के निशान दिखाई देते रहे। धामपुर के अग्रणी क्रांतिकारी कुलमणि सिंह के परिजनो को भी ऐसी ही परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था। एक बार अचानक रात को पुलिस ने उनके घर छापा मार दिया और कुलमणि सिंह को यह ललकार लगाई -


'कहाँ है शेर का बच्चाहमसे डरकर क्यों रुस डरकर क्या छुपा है। बाहर निकल, हम भी तो देखें तुझमें कितना बड़ा दिल है।


इस पर कुलमणि सिंह की बहन ने उत्तर दिया कि


'शेर जंगल में रहते हैं, घरों में नहीं। सच्चे लोग मुकाबले के लिए बताकर आते हैं, अचानक छापा नहीं मारते। इतने ही बहादुर हो, तो जंगल में ढूंढ लो।'


इस जवाब पर पुलिस ने आसमानी फायर किए और दांत पीसते हुई वहां से चली गई। ग्राम ढेला अहीर के क्रांतिकारी घसीटा सिंह पुत्र सिद्धा सिंह भी तिरंगा फहराने के समय नूरपुर में मौजूद थे। 16 अगस्त को वे शाम के समय, गाँव पहुँचने से कुछ दूरी पहले ही, पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिए गएपुलिस ने इनसे नूरपुर तिरंगा फहराने गए अन्य लोगों के नाम जानने चाहे। परंतु उन्होने अन्य किसी सेनानी का नाम नहीं बताया, इससे पुलिस ने मनमाने तरीके से उन पर लाठियाँ बरसायी, उन्होंने एक बार भी उफ नहीं की। पुलिस ने इनकी दृढ़ राष्ट्रभक्ति से इतनी ईष्या खायी कि पहले इनके घर लूट-पाट की, फिर घर की कुर्की करा दी, कुर्की के दौरान पुलिस ने मकान की छत ढहाकर उसमें लगी लकड़ी की कड़ियाँ भी निकलवा ली थीं।


जेल में रिक्खी सिंह की शहादत


16 अगस्त 1942 को नूरपुर थाने में परवीन सिंह के हाथ से तिरंगा निकालकर उसे फहराते समय ग्राम असगरीपुर के रिक्खी सिंह पुलिस की गोली से गम्भीर रूप से घायल हो गए थे। पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर बिजनौर जेल भेज दिया था। जेल में उनका अच्छा इलाज नहीं किया गया, थोड़ी-बहुत मरहम पट्टी की गई, किन्तु वह भी दिखावे के लिए। इसलिए गोली लगने के 24 घण्टे बाद ही उनकी हालत नाजुक हो गई थी, बताया जाता है कि गिरफ्तारी के 10 दिन के अन्दर ही उनका निधन हो गया था। जिला बिजनौर के अनेक शहरों में अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन के अन्र्तगत, 10 अगस्त 1942 से ही सरकारी भवनों पर तिरंगा लगाने तथा सरकारी संपत्ति को अनुपयोगी बनाने की गतिविधियाँ शुरू हो गई थीं। इस कारण पुलिस ने जिले के बिजनौर, धामपुर, किरतपुर, हल्दौर, नहटौर, नजीबाबाद, चाँदपुर, अफजलगढ़ जैसे अनेक छोटे-बड़े शहरों एवं अन्य स्थानों से स्वतंत्रता सेनानियों को पकड़कर जेल में बंद किया हुआ था। रिक्खी सिंह की हालत को बिगड़ता देख ये सेनानी लगभग रोज जेल प्रशासन से आक्रोशित हुआ करते थे, और उन्हे घर भेजने को कहते थे, परन्तु जेल प्रशासन बिल्कुल नहीं सुनता था। रिक्खी सिंह के निधन के बाद पुलिस उनके शव को चोरी-छिपे जला देना चाहती थी। परन्तु जेल में बंद सेनानियों तथा सामान्य कैदियों ने इस बात पर बड़ा भारी हंगामा कर दिया, और भूख हड़ताल कर दी, जिससे जेल प्रसाशन को अपना रास्ता बदलना पड़ाउस समय जेल में चाँदपुर के शायर एवं सेनानी इरफान भी बंद थे। उन्होने रिक्खी सिंह को कुछ पंक्तियां लिखकर समर्पित की थी



रिक्खी यह मरना मुबारक, यह मरना मुबारक, 


तुम कहना, यह जाकर खुदा से, बड़े कष्ट में हैं, बंदे तुम्हारे, हुकूमत है मक्कार, अंगरेजियों की,


हुकूमत है मक्कार, अंगरेजियों की, 


इसे गर बदल दो, तो मेहर हो तुम्हारी।


धामपुर के महान साहित्यकार एवं स्वतंत्रता सेनानी चरण सिंह 'सुमन' ने इन दोनों क्रांतिकारियों के ऊपर लिखे 'शहीद परवीन सिंह, रिक्खी सिंह सुमनान्जलि' नामक अपने लघु खंडकाव्य में कहा है कि


परवीन सिंह शहीद पर गर्व है, देश हुआ आजाद।


रिक्खी सिंह का बलिदान भी, सदा रहेगा याद।।


जेल प्रसाशन द्वारा किए गए दिखावटी इलाज के कारण रिक्खी सिंह की शहादत पर जिले की जनता में भी बहुत गुस्सा पैदा हुआ था। जनता पर इस बात का असर तब उजागर हुआ, जब पुलिस ने क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करने के लिए आम जनता का सहयोग चाहा, और उसे अपेक्षित सहयोग नहीं मिला।


क्रमशः... (लेखक उत्तर प्रदेश सरकार के सिंचाई-विभाग में सहायक-अभियंता के पद पर कार्यरत हैं)