विश्व धरोहर कुम्भ महापर्व भावात्मक सांस्कृतिक संचेतना का पारम्परिक प्रतीक पारम्परिक प्रतीक

अमृत प्राप्त करके अजर, अमर बनने की भावना विश्व की सभी प्राचीन संस्कृतियों में पाई जाती है। प्राचीनकाल से ही मानवजाति को अमरता के रहस्य को जानने की जिज्ञासा रही है। लगभग साढे चार हजार वर्ष पुरानी इराक और सीरिया के भू-भाग में दजला-फरात नदियों के तट पर पनपी सुमेर-बेबीलोन संस्कृतियों में अमरता के सन्दर्भ मिलते हैं। दक्षिण-पूर्व केब्रह्मदेश (म्यांम्यार), थाईलैंड, हिन्देशिया, मलेशिया, सिंगापुर, ब्रुनेई आदि देशों में भी समुद्रमंथन की कथा का व्यापक प्रभाव है और वहां अमृत प्राप्तकर अमर होने की अवधारणा सदियों पुरानी है।


कुम्भ पर्व  अनादिकाल से चला आने वाला एक हिन्दू पर्व है। इस पर्व में हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक में प्रत्येक बारह वर्ष में करोड़ों श्रद्धालु आकर स्नान करते हैं। कुम्भ पर्व पृथ्वी पर मानव सभ्यता के आस्था और विश्वास का सबसे बड़ा जन-सम्मेलन है। यह भारत का एक महत्वपूर्ण, सबसे प्राचीन और सबसे बड़ा धार्मिक व सांस्कृतिक मेला है। कुम्भ का वर्णन वेदों में भी मिलता है और वैदिक काल से ही कुम्भ पर्व भारत में निरन्तर आयोजित हो रहे हैं। कुम्भ मेले का संबंध सृष्टि के आदिकाल में देव और दानवों द्वारा किये गये समुद्रमन्थन की घटना से हैसमुद्रमंथन और कुम्भ पर्व के संबंध में श्रीमद्भागवत, पुराणों, रामायण, महाभारत, तांत्रिक ग्रन्थों आदि भारत के प्राचीन साहित्य में मिलती है जो इस प्रकार है।



देवासुर युद्ध में मृत्त असुरों को दैत्यगुरु शुक्राचार्य मृत्तसंजीवनी विद्या के द्वारा फिर जीवित कर लेते थे। किंतु देवताओं के पास यह विद्या नहीं थी परिणामस्वरुप देवपक्ष असुरों से युद्ध में हार जाते थे। इस समस्या को लेकर इन्द्र के नेतृत्व में सभी देवता भगवान विष्णु के पास गये। भगवान ने उन्हें दैत्यों के साथ मिलकर समुद्रमंथन करने की विधि बताई। भगवान के आदेशानुसार इन्द्र ने समुद्र मंथन से अमृत निकलने की बात दैत्यराज बलि को बतायी। दैत्यराज बलि ने देवराज इन्द्र से समझौता कर लिया और समुद्र मंथन के लिये तैयार हो गये। मन्दरांचल पर्वत को मथानी तथा वासुकी नाग को नेती बनाया गया। स्वयं भगवान श्री विष्णु कच्छप अवतार लेकर मन्दराचल पर्वत को अपने पीठ पर रखकर उसका आधार बन गये। भगवान नारायण ने दानव रूप से दानवों में और देवता रूप से देवताओं में शक्ति का संचार किया। वासुकी नाग को भी गहन निद्रा दे कर उसके कष्ट को हर लिया। देवताओं ने वासुकी नाग को पूंछ की ओर से पकड़ा और दानवों ने मुख की ओर से पकड़कर समुद्रमंथन करने लगे। भगवान कच्छप के एक लाख योजन चैड़ी पीठ पर मन्दराचल पर्वत घूमने लगा


समुद्र मंथन से सबसे पहले जल का हलाहल विष निकला। उस विष की ज्वाला से सभी देवता तथा दैत्य जलने लगे और उनकी कान्ति फीकी पड़ने लगी। इस पर सभी ने मिलकर भगवान शंकर से प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना पर भगवान शिव विष को हथेली पर रख कर उसे पी गये, किन्तु उसे कण्ठ से नीचे नहीं उतरने दिया। उस कालकूट विष के प्रभाव से शिव जी का कण्ठ नीला पड़ गया। इसीलिये महादेव जी को नीलकण्ठ कहते हैं। विष को शंकर भगवान के द्वारा पान कर लेने के पश्चात फिर से समुद्र मंथन प्रारम्भ हुआ और चन्द्रमा उत्पन्न हुए जिसे शिवजी ने अपनी जटाओं में धारण कर लिया। उसके बाद शाङ्ग धनुष और कामधेनु गाय निकली, जिन्हें ऋषियों को दे दिया गया। फिर उच्चैश्श्रवा घोड़ा निकला जिसे दैत्यराज बलि ने रख लिया। उसके बाद ऐरावत हाथी निकला जिसे देवराज इन्द्र ने ग्रहण किया। इसके पश्चात कौस्तुभमणि, पांचजन्य शंख तथा लक्ष्मीजी का आविर्भाव हुआ जिन्हें भगवान विष्णु ने ग्रहण कर लिया। फिर कल्पवृक्ष पारिजात और रम्भादि अप्सराएं निकली जिन्हें देवलोक में रखा गया। उसके बाद वारुणी प्रकट हुई जिसे दैत्यों ने ले लिया। अन्त में वैद्यराज धन्वन्तरि स्वयं अमृत कलश लेकर प्रकट हुए।


अमृतकुम्भ लेने के लिये देवताओं और असुरों में झगड़ा होने लगा जिसके परिणामस्वरुप कुम्भ का अमृत छलक कर हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक इन चार स्थानों पर पर गिरा। यह युद्ध 12 दिन तक चला और (देवताओं के 12 दिन मनुष्यों के 12 वर्ष के बराबर होते हैं) इसलिये प्रत्येक बारह वर्ष में हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक चार स्थानों पर कुम्भ मेला आयोजन की परम्परा आरम्भ हुई।


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