प्रयागराज में कुम्भ : एक परिचय

प्रयाग-गंगा-युमना के संगम स्थल प्रयाग को पुराणों (मत्स्य 109.15; स्कन्द, काशी 7.45; पद्म 6.23. 27-35 तथा अन्य) में ‘तीर्थराज' (तीर्थों का राजा) नाम से अभिहित किया गया है। इस संगम के सम्बन्ध में ऋग्वेद के खिल सूक्त (10.15;) में कहा गया है कि जहाँ कृष्ण (काले) और श्वेत (स्वच्छ) जल वाली दो सरिताओं का संगम है वहाँ स्नान करने से मनुष्य स्वर्गारोहण करता है। पुराणोक्ति यह है कि प्रजापति (ब्रह्मा) ने आहुति की तीन वेदियाँ बनायी थीं- कुरुक्षेत्र, प्रयाग और गया। इनमें प्रयाग मध्यम वेदी है। माना जाता है कि यहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती (पाताल से आने वाली) तीन सरिताओं का संगम हुआ है। पर सरस्वती का कोई बाह्य अस्तित्व दृष्टिगत नहीं होता। मत्स्य (104.12), कूर्म (1.36.27) तथा अग्नि (111.6-7) आदि पुराणों के अनुसार जो प्रयाग का दर्शन करके उसका नामोच्चारण करता है तथा वहाँ की मिट्टी का अपने शरीर पर आलेप करता है वह पापमुक्त हो जाता हैवहाँ स्नान करने वाला स्वर्ग को प्राप्त होता है तथा देह त्याग करने वाला पुनः संसार में उत्पन्न नहीं होता। यह केशव को प्रिय (ईष्ट) है। इसे त्रिवेणी कहते हैं।



प्रयाग शब्द की व्युत्पत्ति वनपर्व (87.18-19) में यज् धातु से मानी गयी है। उसके अनुसार सर्वात्मा ब्रह्मा ने सर्वप्रथम यहाँ यजन किया था (आहुति दी थी) इसलिए इसका नाम प्रयाग पड़ गया। पुराणों में प्रयाग-मण्डल, प्रयाग और वेणी अथवा त्रिवेणी की विविध व्याख्याएँ की गयी हैं। मत्स्य तथा पद्मपुराण के अनुसार प्रयागमण्डल पाँच योजन की परिधि में विस्तृत है। और उसमें प्रविष्ट होने पर एक-एक पद पर अश्वमेघ यज्ञ का पुण्य मिलता है। प्रयाग की सीमा प्रतिष्ठान (इँसी) से वासुकिसेतु तक तथा कंबल और अश्वतर नागों तक स्थित है। यह तीनों लोकों में प्रजापति की पुण्यस्थली के नाम से विख्यात है। पद्मपुराण (1.43-27) के अनुसार 'वेणी क्षेत्र प्रयाग की सीमा में 20 धनुष तक की दूरी में विस्तृत है। वहाँ प्रयाग, प्रतिष्ठान (झूसी) तथा अलर्कपुर (अरैल) नाम के तीन कूप हैं। मत्स्य (110.4) और अग्नि (111.12) पुराणों के अनुसार वहाँ तीन अग्नि-कुण्ड भी हैं, जिनके मध्य से होकर गंगा बहती है। वनपर्व (85.81 और 85) तथा मत्स्य (104.16-17) में बताया गया है कि प्रयाग में नित्य स्नान को 'वेणी' अर्थात् दो नदियों (गंगा और यमुना) का संगम स्नान कहते हैं। वनपर्व (85.75) तथा अन्य पुराणों में गंगा और यमुना के मध्य की भूमि को पृथ्वी का जघन या कटिप्रदेश कहा गया है। इसका तात्पर्य है पृथ्वी का सबसे अधिक समृद्ध प्रदेश अथवा मध्य भाग।


गंगा, यमुना और सरस्वती के त्रिवेणीसंगम को ‘ओंकार नाम से अभिहित किया गया है। ‘ओंकार' का ‘ओम्' परब्रहम परमेश्वर की ओर रहस्यात्मक संकेत करता है। यही सर्वसुखप्रदायिनी त्रिवेणी का भी सूचक है। ओंकार का अकार सरस्वती का प्रतीक, उकार यमुना का प्रतीक तथा मकार गंगा का प्रतीक है। तीनों क्रमशः प्रद्युम्न, अनिरुद्ध तथा संकर्षण (हरि के व्यूह) को उद्भुत करने वाली हैं। इस प्रकार इन तीनों का संगम त्रिवेणी नाम से विख्यात है। (त्रिस्थलीसेतु, पृष्ठ 8)।


नरसिंहपुराण (65.17) में विष्णु को प्रयाग में योगमूर्ति के रूप में स्थित बताया गया है। मत्स्यपुराण (111.4-10) के अनुसार रुद्र द्वारा एक कल्प के उपरान्त प्रलय करने पर भी प्रयाग नष्ट नहीं होता। उस समय प्रतिष्ठान के उत्तरी भाग में ब्रह्मा छद्म वेश में, विष्णु वेणीमाधव रूप में तथा शिव वटवृक्ष के रूप मेंआवास करते हैंऔर सभी देव, गंधर्वसिद्ध तथा ऋषि पापशक्तियों से प्रयागमण्डल की रक्षा करते हैं। इसीलिए मत्स्यपुराण (10.4.18) में तीर्थयात्री को प्रयाग जाकर एक मास निवास करने तथा संयमपूर्वक देवताओं और पितरों की पूजा करके अभीष्ट फल प्राप्त करने का विधान है।


इसी प्रकार क्षौर कर्म (शिरोमुंडन) भी प्रयाग में सम्पन्न होने पर पापमुक्ति का हेतु माना गया है। बच्चों और विधवाओं के क्षीर कर्म का विधान तो है ही, यहाँ तक कि सधवा पत्नियों के क्षौर कर्म का भी विधान ‘त्रिस्थलीसेतु के अनुसार मिलता है। वहाँ बताया गया है कि सधवा स्त्रियों को अपने केशों की सुन्दर वेणी बनाकर, सभी प्रकार के केशविन्यास सम्बन्धी व्यंजनों से सजाकर पति की आज्ञा से (वेणी के अग्र भाग का) क्षौर कर्म कराना चाहिए। तत्पश्चात् कटी हुई वेणी को अंजली में लेकर उसके बराबर स्वर्ण या चाँदी की वेणी भी लेकर जुड़े हाथ से संगम स्थल पर बहा देना चाहिए और कहना चाहिए कि सभी पाप नष्ट हो जायें और हमारा सौभाग्य उत्तरोत्तर वृद्धि पर रहे। नारी के लिए एक मात्र प्रयाग में ही क्षौर कर्म कराने का विधान है।


प्रयाग में आत्महत्या करने का सामान्य सिद्धान्त के अनुसार निषेध है। कुछ अपवादों के लिए ही इसको प्रोत्साहन दिया जाता है। ब्राह्मण के हत्यारे, सुरापान करने वाले, ब्राह्मण का धन चुराने वाले, असाध्य रोगी, शरीर की शुद्धि में असमर्थ, वृद्ध, जो रोगी भी हो, रोग से मुक्त न हो सकता हो; ये सभी प्रयाग में आत्मघात कर सकते हैं। (दे. आदिपुराण और अत्रिस्मृति) गृहस्थ जो संसार के जीवन से मुक्त होना चाहता हो वह भी त्रिवेणीसंगम पर जाकर वटवृक्ष के नीचे आत्मघात कर सकता है। पत्नी के लिए पति के साथ सहमरण या अनुमरण का विधान है, पर गर्भिणी के लिए यह विधान नहीं है। (दे. नारदीय, पूर्वार्द्ध, 7.52-53) प्रयाग में आत्मघात करने वाले को पुराणों के अनुसार मोक्ष की प्राप्ति होती है। कूर्म. (1.36.16-39) के अनुसार योगी गंगा- यमुना के संगम पर आत्महत्या करके स्वर्ग प्राप्त करता है और पुनः नरक नहीं देख सकताप्रयाग में वैश्यों और शूद्रों के लिए आत्महत्या विवशता की स्थिति में यदाकदा ही मान्य थी। किन्तु ब्राह्मणों और क्षत्रियों के द्वारा आत्म-अग्न्याहुति दिया जाना एक विशेष विधान के अनुसार उचित था। अतः जो ऐसा करना चाहें तो ग्रहण के दिन यह कार्य सम्पन्न करते थे, या किसी व्यक्ति की मूल्य देकर डूबने के लिए क्रय कर लेते थे। (अलबरूनी का भारत, भाग 2, पृ. 170)। सामान्य धारणा यह थी कि इस धार्मिक आत्मघात से मनुष्य जन्म और मरण के बन्धन से मुक्ति पा जाता है और उसे स्थायी अमरत्व (मोक्ष) अथवा निर्वाण की प्राप्ति होती है। इस धारणा का विस्तार यहाँ तक हुआ कि अहिंसा-वादी जैन धर्मावलम्बी भी इस धार्मिक आत्मघात को प्रोत्साहन देने लगे। कुछ पुराणों के अनुसार तीर्थयात्रा आरम्भ करके रास्ते में ही व्यक्ति यदि मृत्यु को प्राप्त हो और प्रयाग का नाम ले ले तो उसे बहुत पुण्यफल होता है। अपने घर में मरते समय भी यदि व्यक्ति प्रयाग का नाम स्मरण कर ले तो ब्रह्मलोक को पहुँच जाता है और वहाँ संन्यासियों, सिद्धों तथा मुनियों के बीच मान्यता है।