प्रयाग माहात्म्य

प्रयाग तीर्थराज कहे जाते हैं। समस्त तीर्थों के ये अधिपति हैं। सातों पुरियाँ इनकी रानियाँ कही गयी हैं। गंगा-यमुना की धारा ने पूरे प्रयाग के क्षेत्र को तीन भागों में बाँट दिया हैं। ये तीनों भाग अग्निस्वरूप-यज्ञवेदी माने जाते हैं। इनमें गंगा-यमुना के मध्य का भाग गार्हपत्याग्नि, गंगापाकि भाग (अलर्कपुर-रैल) दक्षिणाग्नि माना जाता है। इन भागों में पवित्र होकर एक-एक रात्रि निवास करने से इन अग्नियों की उपासना का फल प्राप्त होता हैं।


प्रयाग में प्रतिवर्ष माघमास में मेला लगता हैइसे कल्पवास कहते हैं। बहुत-से श्रद्धालु यात्री प्रतिवर्ष गंगा-यमुना के मध्य में कल्पवास करते हैं। कल्पवास सौर मास की मकर-संक्रान्ति से कुंभ की संक्रान्ति तक मानते हैं और कोई चान्द्रमास के अनुसार माघ महीने भर मानते हैं। यहाँ प्रति बारहवें वर्ष कुंभ होता है। कुम्भ से छठे वर्ष अर्धकुंभ पड़ता है। इस अवसर पर भी माघ भर प्रयाग में भारी मेला रहता है। इतिहासकारों का कथन है कि पर्व के दिनों सम्राट् हर्षवर्धन प्रयाग में आकर अपना सर्वस्व दान कर दिया करता थे।



प्रयाग में गंगा-यमुना के संगम में स्नान करके प्राणी पापों से मुक्त होकर स्वर्ग का अधिकारी हो जाता है और इस क्षेत्र में देह त्यागनेवाले प्राणी की मुक्ति हो जाती है-ऐसे वचन पुराणों में प्राप्त होते हैं।


प्रयाग के माहाम्त्य से सारा वैदिक साहित्य भरा पड़ा है। पद्मपुराण का वचन है


ग्रहाणां च यथा सूर्यो नक्षत्राणं यथा शशी। तीर्थानामुत्तमं तीर्थं प्रयागाख्यमनुत्तमम्।


जैसे ग्रहों में सूर्य तथा ताराओं में चन्द्रमा हैं, वैसे ही तीर्थों में प्रयाग सर्वोत्तम है।'


यत्र वटस्याक्षयस्य दर्शनं कुरुते नरः। तेन दर्शनमात्रेण ब्रहहत्या विनश्यति।।


जो पुरुष यहाँ के अक्षयवट का दर्शन करता है, उसके दर्शनमात्र से ब्रह्महत्या नष्ट हो जाती है।'


आदिवटः समाख्यातः कल्पान्तेअपि च दृश्यते। शेते विष्णुर्यस्य पत्रे अतोअयमव्ययः स्मृतः।।


यह अक्षय वट आदिवट कहलाता है और कल्पान्त में भी देखा जाता है। इसके पत्ते पर भगवान् विष्णु शयन करते हैं, अतः यह वट अव्यय समझा जाता है।'


माधवाख्यस्तत्र देवः सुखं तिष्ठति नित्यशः। तस्य वै दर्शनं कार्यं महापापैः प्रमुच्यते।।


‘वहाँ भगवान् माधव नाम से सुखपूर्वक नित्य विराजते हैं, उनका दर्शन करना चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य महापापों से मुक्त हो जाता है'


गोध्रो वापि च चाण्डालो बालघाती तथाविद्वान् म्रियते तत्र वै यदा।। स वै चतुर्भुजो भूत्वा वैकुण्ठे वसते चिरम्।


‘गोघाती, चाण्डाल, शठ, दुष्टचित्त, बालघाती तथा मूर्ख-जो भी यहाँ मरता है, वह चतुर्भुज होकर अनन्तकाल तक वैकुण्ठ में वास करता है।'


प्रयागे तु नरो यस्तु माघस्नानं करोति च।न तस्य फलसंख्यास्ति शृणु देवर्षिसत्तम।।


‘देवर्षे ! प्रयाग में जो माघस्नान करता है, उसके पुण्यफल की कोई गणना नहीं।'


मत्स्यपुराण में आया हैं कि तीर्थराज प्रयाग की महिमा के विषय में महाराज युधिष्ठिर के द्वारा पूछने पर मार्कण्डेय ऋषि ने कहा कि हे राजन् ! प्रयाग-माहात्म्य का वर्णन सैकड़ों वर्षों में भी नहीं किया जा सकता है।


‘प्रयाग में साठ हजार धनुर्धर वीर गंगा की रक्षा करते हैं तथा सात घोड़ों से जुते हुए रथ पर चलने वाले सूर्य सदा यमुना कीदेखभाल करते रहते हैं। इन्द्र विशेषरूप से सदा प्रयाग की रक्षा में तत्पर रहते हैं। श्री हरि देवताओं को साथ लेकर पूरे प्रयाग-मण्डल की रखवाली करते हैं। महेश्वर हाथ में त्रिशूल लेकर सदा वटवृक्ष की रक्षा करते रहते हैं। देवगण इस सर्वपापहारी मंगलमय स्थान की रक्षा में तत्पर रहते हैं। इसलिये इस लोक में अधर्म से घिरा हुआ मनुष्य प्रयाग क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकता। नरेश्वर ! यदि किसी का स्वल्प अथवा उससे भी थोड़ा पाप होगा तो वह साराका-सारा प्रयाग का स्मरण करने से नष्ट हो जायगा; क्योंकि (ऐसा विधान है कि) प्रयागतीर्थ के दर्शन, नाम-संकीर्तन अथवा मृत्तिका का स्पर्श करने से मनुष्य पाप से मुक्त हो जाता है।'


‘राजेन्द्र ! प्रयाग क्षेत्र में पाँच कुण्ड हैं, उन्हीं के मध्य में गंगा बहती हैं, इसलिये प्रयाग में प्रवेश करते ही उसी क्षण पाप नष्ट हो जाता है। मनुष्य कितना भी बड़ा पापी क्यों न हो, यदि वह हजारों योजन दूर से भी गंगा का स्मरण करता है तो उसे परम गति की प्राप्ति होती है। गंगा का नाम लेने से मनुष्य पाप से छूट जाता है, दर्शन करने से उसे जीवन में मांगलिक अवसर देखने को मिलते हैं तथा स्नान और जलपान करके तो वह अपनी सात पीढ़ियों को पावन बना देता है। वहाँ सूर्य-कन्या महाभागा यमुनादेवी, जो तीनों लोकों में विख्यात हैं, नदी रूप में आयी हुई हैं और साक्षात् भगवान् शंकर वहाँ नित्य निवास करते हैं। इसलिये युधिष्ठिर! यह पुण्य प्रद प्रयाग मनुष्यों के लिये दुर्लभ है। राजेन्द्र! देव, दानव, गन्धर्व, ऋषि, सिद्ध, चारण आदि गंगा-जल का स्पर्श कर स्वर्गलोक में विराजमान होते हैं।'


मकरस्थे रवौ पाघे गोविन्दाच्युत माधव। स्नानेनानेन मे देव यथोक्तफलदो भव। (ना. उत्तर. 631 13-14)


'गोविन्द! अच्युत! माधव! देव! मकर राशि पर सूर्य के रहते हुए माघमास में त्रिवेणी के जल में किये हुए स्नान से स्न्तुष्ट हो आप शास्त्रोक्त फल देने वाले हैं।'


इस मन्त्र का उच्चारण करके मौनभाव से स्नान करें'वासुदेव, हरि, कृष्ण और माधव' आदि नामों का बार-बार स्मरण करें। मनुष्य अपने घर पर गरम जल से साठ वर्षों तक जो स्नान करता है, उसके समतान फल की प्राप्ति सूर्य के मकर राशि पर रहते समय एक बार के स्नान से हो जाती है। बाहर बावड़ी आदि में किया हुआ स्नान बारह वर्षों के स्नान का फल देने वाले है। पोखर में स्नान करने पर उससे दूना और नदी आदि में स्नान करने पर चौगुना फल प्राप्त होता है। देवकुण्ड में वही फल दस गुना और महानदी में सौ गुना होता है। दो महानदियों के संगम में स्नान करने पर चार सौ गुने फल की प्राप्ति होती है, किन्तु सूर्य के मकर राशि पर रहते समय प्रयाग की गंगा में स्नान करने मात्र से वह सारा फल सहन्न गुना होकर मिलता है।


हरिद्वार-महात्म्य



सात पुरियों में से मायापुरी हरिद्वार के विस्तार के भीतर आ जाती है। यहाँ प्रति बारहवें वर्ष कुंभ का मेला लगता है। उसके छठे वर्ष अर्धकुंभ पड़ता है। मायापुरी, हरिद्वार, कनखल, ज्वालापुर और भेमगोड़ा मिलकर हरिद्वार बनता हैं।


योअस्मिनन्क्षेत्रे नरः स्नायात्कुम्भेज्येअजगे रखो। स तु स्याद्वाक्पतिः साक्षात्प्रभाकर इवापरः।। (स्कन्द उवाच)


नासिक महात्म्य



नासिक को गोदावरी, पंचवटी और गौतमी आदि नामों से भी जाना जाता है। वह स्थान नासिक पंचवटी नाम से प्रसिद्ध  हैं।


तद्दिनं हि समारभ्य सिंहस्थे च बृहस्पतौ।आयान्ति सर्वतीर्थानि क्षेत्राणि दैवतानि च।। सरांसि पुष्करादीनि गंगाद्यास्सरितस्तथा। वासुदेवायो देवाः सन्ति वै गौतमीतटे॥ (शिवपुराण, रुद्रसंहिता. 24)


अवन्तिका-माहात्म्य



आधुनिक लोग अवन्तिकापुरी को उज्जैन कहते हैं। उज्जैन का दूसरा नाम महाकालपुरी भी है। महाकालपुरी का नाम प्रत्येक युग में परिवर्तित होता रहता है। इसके सम्बन्ध में कहागया है


कल्पे कल्पेअखिलं विश्वं कालयेद्यः स्वलीलया। तं कालं कलयित्वा यो महाकालोअभवत्किल।। (स्क. का. ख. 7/91)


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