विक्रमादित्य की ऐतिहासिक परम्परा

विक्रमादित्य से सम्बन्धित तीन प्रमुख पक्ष हैं (क) विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता।। (ख) विक्रमादित्य के काल का प्रश्न। (ग) विक्रम संवत् के प्रवर्तक की समस्या। यदि हम पहली समस्या का समाधान नहीं करते हैं तो हमारे समक्ष केवल साध्यसम हेत्वाभास ही हाथ आएगा। ये तीनों समस्याएँ अंतरंग रूप से जुड़ी हैं।


विक्रम संवत् को सर्व प्रथम कृत संवत् फिर मालव संवत् कहा गया। वह 57 ई. पू. से प्रारम्भ हुआ। अलबरूनी के अनुसार शक सवंत् विक्रमादित्य के 135 वर्ष पश्चात् हुआइस साक्ष्य के अनुसार विक्रम संवत् 57 ई. पू. में निश्चित होता है। वे प्रमुख अभिलेख, जिनसे कृत से मालव फिर विक्रम की परम्परा दिखती है, निम्नलिखित हैं


(1) उदयपुर का नंदसा यूप अभिलेख, जिसकी तिथि 282 है- कृतयोर्खयोर्वर्षतपोर्द्धय शीतयोः चैत्यपूर्णमास्याम्।


(2) (क) राजस्थान का बरनाला यूप अभिलेख जिसमें 284 तिथि दी है।


(ख) बरनाला का ही दूसरा अभिलेख है, जिसमें 335 तिथि है।


(3-5) राजस्थान में बड़वा से प्राप्त तीन अभिलेख जो मौखरी महासेनापतियों के हैं। इनमें 295 वर्ष और कृतेहि है।


(6) राजस्थान का विजयगढ़ अभिलेख 428 वर्ष जिसमें कृतेषु लिखा है। मालव लिखे अभिलेखों में निम्न है


(1) 461 के मंदसौर अभिलेख में कृत तथा मालव दोनों संवतों का नाम है।


श्रीमालवगणाम्राते प्रशस्ते कृतसंज्ञिते।


अतः मालव तथा कृत एक ही संवत् है। मन्दसौर अभिलेख में तिथि मालव संवत् में है। इसके अतिरिक्त अन्य अभिलेखों में भी मालव संवत् का उल्लेख है। विक्रम संवत् का उल्लेख निम्न अभिलेखों में है 



(1) 794 वर्ष का धिनिकी (गुजरात) के सैन्धव राजा जयैकदेव का अभिलेख है, जिसमें लिखा है- विक्रमसंवत्सरशतेषु सप्तसु चतुर्नवत्यधिकेष्वंकतः।।


(2) 898 वर्ष का चाहमान चंडमहासेन का धौलपुर अभिलेख है, जिसमें लिखा है- वसुनवाष्टी वर्षागतस्य कालस्य विक्रमाख्यस्य।


इस संवत् के 1100 के लगभग तथा उसके पश्चात् विक्रम, विक्रमादित्य, विक्रम संवत्, विक्रम काल आदि नाम आते हैं। ये अधिकांश रूप से राजस्थान, गुजरात तथा मध्यप्रदेश से प्राप्त होते हैं। अतः 428 वर्ष तक यह संवत् कृत कहलाया फिर मालव, फिर विक्रम और फिर विक्रमादित्य।


जैन पट्टवलियाँ उपर्युक्त संवत् का श्रेय विक्रमादित्य को देती हैंइसके अनुसार महावीर के निर्वाण के 470 वर्ष पश्चात् विक्रमादित्य का शासन हुआ, जो 60 वर्षों तक हुआ। इस प्रकार 57 ई. पू. उसकी तिथि आ जाती है।


पटवलियों से स्पष्ट होता है कि गर्दभिल्ल का राज्य तेरह वर्ष हुआ, फिर चार वर्ष शकों का राज्य रहा, फिर विक्रमादित्य का शासन आया।


प्रभावकचरित (प्रभाचन्द्र सूरि) के अन्तर्गत कालक सूरि का जीवन वृत्त है। इसके अनुसार धारावर्ष में वीरसिंह का राज्य था। उसका पुत्र कालक और पुत्री सरस्वती थी। गुणाकर नामक जैन संत से प्रभावित होकर कालक बहिन सहित जैन बन गया। एक बार वह उज्जयिनी गया। वहाँ के राजा गर्दभिल्ल ने सरस्वती का अपहरण कर लिया। कालक के विनती करने पर भी जब गर्दभिल्ल ने सरस्वती को नहीं छोड़ा, तो कालक पश्चिम दिशा में सिंधु पार कर शकों के देश पहुँचा। वहाँ नब्बे शक राजा थे, जिनका एक अधिपति था। एक बार जब अधिपति इन राजाओं से क्रुद्ध हुआ तब कालक इन सभी सामन्त राजाओं को सौराष्ट्र, लाट तथा मालव तक ले आए। उन्होंने विशाला (उज्जयिनी) को घेरकर गर्दभिल्ल को पकड़ लिया, उसको देश निकाला दिया तथा वन में वह सिंह द्वारा मारा गया। सरस्वती भिक्षुणियों में वापस चली गई। इस घटना के कुछ वर्षों बाद विक्रमादित्य बहुत प्रतापी राजा बन गया और अपना संवत् चलाया। उसके 135 वर्ष बाद शकों ने पुनः अवन्ती को जीता और अपना शक संवत् चलाया।


यद्यपि प्रभावक सूरि का प्रभावकचरित और मेरुतुंग की पट्टावली दोनों चौदहवीं शती के माने जाते हैं, तथापि अन्य स्रोत भी इनका समर्थन करते हैं। अन्य स्थानों में तेरहवीं शताब्दी का ज्योतिर्विदाभरण, भट्टोत्पल (नवीं शताब्दी), आमराज बारहवीं शताब्दी) आदि भी हैं। 160607 में तारीख फरिश्ता में कहा गया है कि विक्रमादित्य ने उज्जैन बसाया, धार में दुर्ग बनाया तथा उज्जैन में महाकाल देवालय बनाया।


वस्तुतः विक्रमादित्य सम्बन्धी सबसे प्राचीन साक्ष्य गुणाढ्य की बृहत्कथा (प्रथम सदी) है। इसके अनेक रूपान्तर बाद में हुए। जैसे बृहत्कथाश्लोकसंग्रह (बुधस्वामी), क्षेमेन्द्र की बृहत्कथा-मंजरी, सोमदेव की कथासरित्सागर। बृहत्कथा क्योंकि विक्रमादित्य से एक ही शताब्दी बाद की रचना है, इसलिए उसके साक्ष्य को प्रामाणिक मानना चाहिए।


पुरातात्त्विक साक्ष्यों में ई. पू. 250 से ईस्वी 250 तक के मालवगण के सिक्के मालवा क्षेत्र में व्यापक रूप से प्राप्त हुए हैं। डॉ. वि.श्री. वाकणकर को कतस उजनीयस लेख वाली मुद्रा भी प्राप्त हुई थी, जिसमें कतस अथवा कुतस के अर्थ कृतस्य लिये गये हैं। पद्मश्री डॉ. वाकणकर को ई.पू. प्रथम शताब्दी की ब्राह्मी लिपि में संस्कृत लेख मिला है, जो अँवलेश्वर से है, जिसमें विक्रमादित्य का उल्लेख है।


विक्रमादित्य के विषय में विभिन्न विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत है। अल्तेकर के अनुसार यदि यह संवत् विक्रमादित्य ने आरम्भ किया होता तो पहले ही उनके नाम पर आधारित होता। यह कृत द्वारा स्थापित हुआ था, जो मालवगण का अधिपति था बाद में जब यह मालव से बाहर प्रचलित हुआ तो इसे एक विशिष्ट व्यक्ति चन्द्रगुप्त द्वितीय (गुप्त वंश के) के नाम से जोड़ दिया गया। यह चन्द्रगुप्त के सिक्कों के पृष्ठभाग पर विक्रमादित्य विरुद से स्पष्ट होता हैवी.वी. मिराशी भी इसी मत की पुष्टि करते हुए हैंउनके अनुसार कृत का अर्थ प्रारम्भ हुआ है


डी.आर. भंडारकर ने भी विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता को स्वीकार नहीं किया। तथा कृत शब्द से कृतयुग का अर्थ लिया है, जो उनके अनुसार पुष्यमित्र शुंग ने चलाया था।


सर जॉन मार्शल के अनुसार यह संवत् एजिस प्रथम ने प्रवर्तित किया। उसका उत्तर-पश्चिमी भारत में प्रथम शताब्दी ई.पू. में अधिपत्य था, जिनमें सिंध तथा पंजाब भी थे और किसी अय तथा अज के द्वारा जारी किये गये संवत् का पता हमें अभिलेखिक साक्ष्यों से मिलता है। यह दोनों उनके अनुसार एजिज ही थे। रेप्सन भी इनसे सहमत है।


बी.एन मुकर्जी का भी मत यही है। उन्होंने महाराज अय से सम्बन्धित संवत् के उल्लेख के उदाहरण दिये हैं। डी.सी. सरकार ने विक्रम संवत् का प्रवर्तनकर्ता वोनोन्स को माना है। यह भी प्रथम श.ई.पू. का माना गया है। मालवीय ने पंजाब में इसको अपना लिया, फिर अपने साथ राजस्थान तथा मालवा में लाए। सरकार के अनुसार बाद में गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त के विक्रमादित्य नाम से यह जुड़ गया। पश्चिमी भारत के शकों को उसने हराया। उनका यह भी कहना है कि भारतवर्ष में संवत् की परम्परा नहीं थी। परन्तु यह बात सिद्ध नहीं लगती कि मालवगण, जो वीर तथा स्वतंत्र प्रकृति के थे, वे उन्हीं विदेशियों का संवत् अपनाएँगे जिनके कारण उन्हें पंजाब छोड़ना पड़ा। चन्द्रगुप्त के नाम पर भी यह संवत् नहीं हो सकता, क्योंकि गुप्तों का अपना संवत् था तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय की शकों पर विजय इतनी भी महत्त्वपूर्ण नहीं थी कि संवत् को उसका नाम दिया जाता। उज्जयिनी, जहाँ यह संवत् प्रारम्भ हुआ उसको शक विजय के पश्चात् उसने बहुत अधिक महत्त्व दिया हो, यह भी प्रमाणित नहीं है।


विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता केवल व्यतिरेकी प्रमाण से भी सिद्ध हो सकती है। उस समय कौन सी समकालीन शक्तियाँ थी? 72 ई. पूर्व से 30 ई. पूर्व तक काण्वों का राज्य था। इसी समय पुराणों के अनुसार शुंगों के कुछ अन्य वंशज भी थे, जो कण्वों के अन्तर्गत मालव में भी थे।


डी.सी. सरकार के अनुसार सातवाहनों के राजा सिमुक ने सुशर्मन् कण्व का राज्य जीता, जो अपने आखरी दिनों में संभवतः मालव तथा उसके निकटवर्ती क्षेत्र में था तथा सिमुक की तिथि प्रथम शताब्दी ई. पूर्व के द्वितीय अथवा तृतीय चरण कही जा सकती है।


उनके अनुसार सातकर्णी प्रथम के तो पूर्वी मालव में होने की संभावना अनेक विद्वान् मानते हैं। क्योंकि सांची के स्तूप दक्षिण तोरण द्वार में आनन्द नामक स्थपति का उल्लेख है, जो सातकर्णी के अन्तर्गत था। सातकर्णी प्रथम की तिथि 27-17 ई. पूर्व दी गई है। परन्तु आवेषनी का एक अन्य अर्थ अर्थशास्त्र से स्पष्ट होता है। आवेषनी अपने स्थान से दूर कहीं भी ठेके में कार्य करते थे। शातकर्णी प्रथम को खारवेल का समकालीन भी माना गया है, जैसा कि खारवेल के हाथी गुफा अभिलेख स्पष्ट है। खारवेल के राज्य का पंचम वर्ष नन्दराज के समय से 300 वर्ष पूर्व था। परन्तु शातकर्णी प्रथम शताब्दी ई. पूर्व के चौथे चरण का ही हो सकता है, क्योंकि 30 ई. पूर्व में कण्वों का राज्य समाप्त हुआ जिसके पश्चात् ही सिमुक सातवाहन का स्वतंत्र रूप से राज्य प्रारम्भ हुआ होगा।


एन.एन. घोष के अनुसार खारवेल का पाँचवा वर्ष 14 ई. पूर्व होगा तथा राय चौधरी के अनुसार 25 ई. पूर्व होगा।


डी.सी. सरकार शात अंकित वाले सिक्कों का उल्लेख करते हैं तथा उनके अनुसार ये पश्चिमी मालव में या तो सिमुक द्वारा या फिर शातकर्णी द्वारा जारी किये गयेवे इस बात की भी संभावना तीव्र रूप से व्यक्त करते हैं कि सिमुक सातवाहन के राज्य की उत्तरी सीमा पूर्वी पश्चिमी मालव दोनों रही होगीपरन्तु तथ्य यह है कि यदि 57 ई. पूर्व विक्रमादित्य का काल मानें, तो इस समय कोई भी बहुत शक्तिशाली साम्राज्य मालवा में नहीं था। सिमुक स्वयं ही कमजोर कण्वों के अन्तर्गत था तथा उनके उन्मूलन के पश्चात् एकाएक इतना शक्शिाली नहीं हो गया होगा। ऐसी परिस्थिति में उज्जयिनी में एक प्रबल मालव गणराज्य के अधिनायक विक्रमादित्य की प्रबल संभावना होती है, जिनको उपर्युक्त उल्लिखित साहित्यिक आदि साक्ष्य भी प्रमाणित करते हैं।


डी.सी. सरकार स्वयं मालवगण के कुछ सिक्कों को प्रथम शताब्दी ई. पूर्व में मानते हैं।


अजयमित्र शास्त्री के अनुसार मालव गणराज्य के अधिकांश सिक्कों की तिथि प्रथम शताब्दी ई. पूर्व ही है। यह सिक्के चौथी शताब्दी ई. तक के प्राप्त होते हैं, जिनमें मालवानां जयः लेख है।


इन सिक्कों के अतिरिक्त अजीबोगरीब लेखों वाले सिक्के हैं, जिनमें मगज, मगजव, मजुप आदि लेख हैं जिनके विषय में बहुत विवाद है। कुछ विद्वान् इन्हें मालवा के ही मानते हैं तथा अन्य विद्वान् शकों के। पी.के. जायसवाल तथा के.के. दासगुप्ता इन्हें मालव गणराज्य से ही सम्बन्धित मानते हैं तथा के.डी. बाजपेयी शकों के। दोनों ही स्थितियों में विक्रमादित्य की परम्परा को बल मिलता है।


यदि यह शक सिक्के हैं, तो भी जैन पट्टवलियों का उल्लेख प्रमाणित होता है। जिसके अनुसार गर्दभिल्ल के पश्चात् कुछ काल के लिए शकों का उज्जयिनी में आधिपत्य हुआ। फिर विक्रमादित्य का शासन आया। अतः मालव गणराज्य चौथी शताब्दी ई.पूर्व में पंजाब में थे। बाद में वे राजस्थान में प्रयाण कर गये। इसके पश्चात् मालवा में उनका अधिपत्य हुआ। उनका गणनायक विक्रमादित्य था जिसका साक्ष्य साहित्यिक, अभिलेखिक, मौद्रिक तथा परम्परा से स्पष्ट होता है।