भारत का गौरवशाली पर्व वर्ष प्रतिपदा

पाश्चात्य खगोलशास्त्री दार्शनिक विचारक जो सिद्धांत स्थिर करते हैं, आगे चलकर कालक्रम में उनको बदलना भी आवश्यक हो जाता है। यथा पश्चिम के विद्वानों तथा अन्य के मत उनके धर्म ग्रन्थों में लिखा है कि इस विश्व की उत्पत्ति 6-7 हजार वर्ष हुई। यूरोप का पंचांग भी ईस्वी सन् 2012 से अधिक काल अवधि का नहीं है। इसका कोई भी वैज्ञानिक अथवा खगोलीय आधार नही है, परन्तु इसकी पद्धति बहुत आसान है; इसी कारण से अनेकों देशों ने स्वीकारा है।


विश्व में भारत एक अति विशिष्ट, अद्भुत और विलक्षण देश हैं, इसकी विशेषता पूरे विश्व में एकदम न्यारी और वैज्ञानिक है। यहाँ जो भी है, सभी वैज्ञानिक आधार पर है, जो विज्ञान की कसौटी पर शत-प्रतिशत खरा हैयहाँ का इतिहास भी सृष्टि रचना से शुरु होता है, जो एक अरब 97 करोड़ 29 लाख 49 हजार 113 वर्ष पुराना है। भारत की काल गणना भी इतना ही प्राचीन है। भारत में पंचाग भी कई प्रचलित हैं, जिसमें से ईस्वी सन् (यूरोपिय पद्धति पर आधारित) आदि एक दो को छोड़कर सभी खगोलीय वैज्ञानिक पद्धति से काल गणना पर आधारित हैं।



प्राचीन भारत में हिरण्यगर्भ के विस्फोट द्रव्य से सर्वप्रथम काल की स्थापना हुई। अतः काल की इस स्थापना के बिन्दु से ही भारतीय इतिहास और काल-गणना का श्रीगणेश होता है। काल और इतिहास में बिम्ब-प्रतिबिम्ब का भाव है; काल बिम्ब है, जो इतिहास उसका प्रतिबिम्ब। इसी कारण जो काल है वही इतिहास है और जो इतिहास है वही काल है। काल पुरूष के साथ ही इतिहास पुरूष का अवतरण भी हो जाता है। वही काल का लेखा-जोखा भी रखता है।


परन्तु खेद का विषय है कि दासता की जंजीरें टूट जाने, अंग्रेजों के अपने वापिस चले जाने के बाद भी, भारत में स्वतंत्रता के 64 वर्ष बाद भी एक अंग्रेज पादरी के नाम पर ग्रेगोरियन वर्ष को गणना के जनवरी मास को नववर्ष के प्रारम्भ के रूप में हमारी सरकार द्वारा मनाया जाता है। यह न केवल अंग्रेजों के दासता युग की पाश्चात्य संस्कृति का प्रतीक है, अपितु सर्वथा अवैज्ञानिक भी है।


पाश्चात्य खगोलशास्त्री दार्शनिक विचारक जो सिद्धांत स्थिर करते हैं, आगे चलकर कालक्रम में उनको बदलना भी आवश्यक हो जाता है। यथा पश्चिम के विद्वानों तथा अन्य के मत उनके धर्म ग्रन्थों में लिखा है कि इस विश्व की उत्पत्ति 6-7 हजार वर्ष हुई। यूरोप का पंचांग भी ईस्वी सन् 2012 से अधिक काल अवधि का नहीं है। इसका कोई भी वैज्ञानिक अथवा खगोलीय आधार नही है, परन्तु इसकी पद्धति बहुत आसान है; इसी कारण से अनेकों देशों ने स्वीकारा है।


स्वीकृति देने वाले इन देशों की सरकारों में भारत की सरकार भी एक है, जिसने दासता के प्रतीक 'इस पंचांग को स्वीकार कर सरकारी कलैण्डर मानकर प्रयोग में लाकर रखा है।' पश्चिम की परम्परा में प्रारम्भ से ही काल की आवधारणा अस्पष्ट रही है। यूनान जिसको यूरोप की सभ्यता, संस्कृति और इतिहास का पिता कहा जाता है, वहाँ काल के तत्त्वचिंतन का सदैव अभाव रहा है। काल का बिन्दु निश्चित करने के लिए संख्यात्मक संकेतों की आवश्यकता पड़ती है, जिसका वहाँ अभाव है।


14 वीं शताब्दी तक यूरोप को गिनती करनी भी नहीं आती थी। भारत ने यूरोप को गिनती करनी उस समय सिखाई जब उसके गणित ने वहाँ की यात्रा मानवकल्याणार्थ की। यूनान के किसी भी गणितज्ञ को आज भी यदि एक अरब की संक्ष्या लिखने को कहा जाये तो वह इसके लिए काफी समय लेगा, परन्तु एक भारतीय तत्क्षण लिख देगा। यूरोप के इतिहास का कालक्रम ईसा के पूर्व और ईसा के बाद के कालक्रम पर आधारित है।


वस्तुतः प्राचीन काल में ग्रेगोरियन कलैण्डर के निर्माण का आधार अर्थात् रोमन कैलेण्डर का निर्माण भी भारतीय पंचांग की नकल पर ही किया गया था। मासों के नाम का क्रम भी भारतीय क्रमानुसार लिया गया, यथा सप्ताम्बर से सितम्बर, अष्टाम्बर से अक्टोम्बर, नवाम्ब्र से नवम्बर तथा दशाम्बर से दिसम्बर। यही कारण है कि ग्रेगोरियन कैलेण्डर की गणना में भी दिसम्बर वर्ष का अन्तिम मास न होकर 10 वां मास है। अन्तिम मास तो फरवरी है। इसका प्रमाण है कि जब दिनों की संख्याओं में जमा-घटा किया जाता हैतो वह अन्त में होता है, न कि बीच में।


उदाहरण के रूप में लीप वर्ष में जब एक दिन बढ़ता है तो उसका प्रभाव अन्तिम मास फरवी पर पड़ता है, जिसके कारण फरवरी महीने में दिनों की संख्या 28 की अपेक्षा 21 हो जाती है। इस विश्लेषण से स्पष्ट हो जाता है कि वर्तमान में प्रयुक्तहोने वाले अंग्रेजी पंचांग की गणनाएँ न केवल अवैज्ञानिक तथा गणित के विरूद्ध है, अपितु भ्रम उत्पन्न करने वाली भी है। ऐसी स्थिति में भारतीय पंचांग की गणना ही सर्वमान्य हो सकती है।


आश्चर्य है कि तथ्यों के बावजूद भी भारतीय सरकार अवैज्ञानिक एवं तर्कहीन अंग्रेजी कलैण्डर ही गणनाओं को त्यागकर भारतीय कालगणना को स्वीकार करने में असमर्थ हैं। यह सब दासत्व के संस्कारों से ग्रसित रहने के कारण है। स्वंतत्रता प्राप्ति के पश्चात् नवम्ब्र 1952 मे वैज्ञानिक और औद्योगिक परिषद् के द्वारा पंचांग सुधार समिति की स्थापना की गई। समिति ने 1955 में सौंपी अपनी रिपोर्ट में विक्रमी सम्वत् को भी स्वीकार करने की सिफारिश की थीकिन्तु तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू के आग्रह पर ग्रेगोरियन कलैण्डर को ही सरकार कामकाजहेतु उपयुक्त मान कर 22 मार्च 1957 को इसे राष्ट्रीय कलैण्डर के रूप में स्वीकार कर लिया गया। इसका दुरूपरिणाम यह हाक रहा है कि सरकार के साथ जनता के भी बहुत लोग दासत्व के इन संस्कारों से ग्रस्त है। ईस्वी सन् के नाम से जाने जानेवाले ग्रेगोरियन कलैण्डर का भारत प्रचलन अंग्रेजी याासकों ने 1752 में आरम्भ किया। अधिकाशं राष्ट्रों के ईसाई होने और अंग्रेजों के विश्वव्यापी प्रभुत्व के कारण ही इसे वियव के अनेक देशों के साथ ही भारत ने भी अपनाया।


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