लोकमानस में वीर विक्रमादित्य

लोक के सामने भले ही महाराजा विक्रमादित्य हो अथवा राजा भोज हो, भर्तृहरि हो या फिर हर्षवर्द्धन-इन विभूतियों के चरित्र जन-जन के लिए प्रेरक बनते चले गएवे लोक के हृदय में स्थापित हुए, फिर अंकुरित हुए और फिर लहलहा उठे। हृदय से कंठ पर आकर लोकव्यापी हो गएयह लोकव्यापकता ही लोकसाहित्य की प्रामाणिकता है।


यही ''जो भी कहँगा सच-सच कहूँगा'' का पुष्टीकरण भी है। लोकसाहित्य के पैर नहीं होते, पंख होते हैं। वह सात-समुद्र पार तक की यात्रा करके वापिस लौट आता हैजब वह लौटता है तब बहुत कुछ वहाँ छोड़ जाता हैऔर बहुत कुछ जोड़ भी लाता है।



विक्रमादित्य भले मालवा में हुए हों, किन्तु मैं तो अविभाजित भारत के उस किस्से का जन्मा जाया हूँ जो मुलतान से भी आगे का अंचल है। वहाँ भी वीर विक्रमादित्य का यश लोककंठ पर विराजित है। जब भी कोई संदर्भ विक्रमादित्य का आता है, तब लोक कह उठता है।


वीर विक्रमाजीत, दुश्मणादा दुशमण।


ते मितरां दा मीत।'


गल दी गल ते कमाल दा कमाल।


जितने विक्रमाजीत, उतने बेताल।।


तथा


विक्रमाजीत ने कर दित्ता न्याय,


कह दित्ता हाल।


उड्या बेताल, लटक्या फेर तो जंडी नाल।


“विक्रमादित्य दुश्मनों का दुश्मन है और मित्रों का मित्र है''


“बात की बात और कमाल का कमाल है। जितने विक्रमादित्य हुए उतने ही बेताल भी हुए।”


यह एक कहावत है। ऐसी ही कहावत मालवी में भी है। “जतरा ठाकरा वतरा चाकर।''


“विक्रमादित्य ने उचित न्याय करके बेताल को जवाब दे दिया। विक्रमादित्य के बोलते ही बेताल उड़ गया फिर से जड़ी के वृक्ष पर लटक गया।''


बेतालपच्चीसी के ये संदर्भ अनेक भाषाओं की यात्रा करते हुए जब वर्तमान पाकिस्तान के उस फरंटीयर अंचल तक पहुँचे होंगे, तब उसने वहाँ की भाषा भी धारण कर ली और तेवर भी। मेरे पिता को बेतालपच्चीसी की कई कथाएँ पंजाबी में कंठस्थ थी। प्रत्येक कहानी के अंत में यह टिप्पणी बखानी जाती थी। यही टिप्पणी आगे जाकर किंवदंती बन गई। जब दो पक्षों में समझौते के प्रयत्न सहमतियों के बाद अचानक असहमतियों में बदल जाएँ तब यह किंवतती कही जाती है।


एक राजा किस प्रकार किंवदंती पुरुष बन जाता है, यह इसका एक प्रेरक प्रसंग है।


पंजाब में विक्रमादित्य, विक्रमाजीत हो गए। यही कारण है, कि 16वीं शताब्दी में हुए राजा हेमू ने विक्रमादित्य के बदले विक्रमाजीत की उपाधि धारण की। सिंध और पंजाब में विक्रमाजीत की अनेक लोककथाएँ प्रचलित है। राजस्थान, गुजरात, छत्तीसगढ़, आंध्र, मालवा, सौराष्ट, आदि अनेक अंचलों में विक्रमादित्य की यशगाथाएँ बखानी जाती है। पंजाब में श्राद्ध के अवसर पर अपने पूर्वजों के श्राद्ध के साथ-साथ वीर विक्रमादित्य का भी श्राद्ध किया जाता रहा है। पहले गंगा, फिर, गुरु, फिर विक्रमाजीत और फिर वरीयता के अनुसार पूर्वजों का श्राद्ध होता है। इसी प्रकार निर्जला एकादशी पर सामूहिक रूप से नदी या सरोवर के घाट पर पूर्वजों का तर्पण जब किया जाता है, तब वीर विक्रमादित्य का भी तर्पण किया जाता रहा है। विक्रम संवत् के आरंभ में पंचांग की पूजा की जाती है, तब वीर विक्रमादित्य की भी पूजा पुरोहित करवाता है। यह निष्ठा व्यक्किी महनीयता और दिव्यता की लोकश्रद्धा ही तो है।


में आदि विक्रमादित्य की छवि ही उभर कर सामने आती है। जिस प्रकार गाने की पिरौड़ी सुनते समय हमारे मष्तिष्क में मूल गाना ही गूंजता रहता है ठीक उसी प्रकार विक्रमादित्य शब्द आते ही हमारे मष्तिष्क में आदि विक्रमादित्य ही होते हैं। वह उपाधिधारी राजा या महाराजा नहीं। विक्रमादित्य भारतीय जनमानस की आस्था और विश्वास के प्रतीक बन गए। सन् 2004 में मैं मैसूर के भारतीय भाषा संस्थान में हिन्दी और सर्वभाषाओं के प्रोजेक्ट के लिये राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् (ठउएफ्छ) दिल्ली के निर्देश पर हिन्दी के विशेषज्ञ के रूप में भेजा गया था। मेरे पास पंजाबी, बंगाली और गुजराती भाषा को प्रोजेक्ट था। गुजराती के लिए दो छात्र मेरे साथ सहयोगी थे। वीनू अतलानी और भरत। वे कई बार एक वाक्य दोहराते थे।“ओ विक्रमादित्य नो वचन छे।'' मैंने एक दिन उनसे पूछा तुम लोग सब यह वाक्य दोहरा कर क्या संदेश देना चाहते हो? उन्होंने कहा जब कोई बात कहकर उसका भरोसा दिलवाना होता है तब हम कहते हैं“ओ विक्रमादित्य नो वचन छे।'' यह विक्रमादित्य का वचन है। अर्थात् यह वचनभंग कभी भी नहीं होगा। चाहे जो हो जायेयह है लोक-आस्था और लोकविश्वास की जीवंतता। इसीलिए मैंने कहा है लोक जब किसी को स्वीकारता है तब सत्कारता भी है। वह उसे अपनी जीवनचर्या का और सांस्कृतिक परम्परा का आदर्श बना लेता है। 


भारत पर बाहरी विक्रमादित्य का नाम सर्वोपरि है। युग नायक ने अपने पराक्रम और सूझ बूझ से खदेड़ कर बाहर किया उनमें शकारि महाराज विक्रमादित्य का नाम सर्वोपरि है। युगपुरुष राम ने भारत को रावणीय आतंकियों से मुक्त किया। वे नाम से उपाधि बन गये। फिर विशिष्ट से सामान्य होते गये। आगे चलकर वे लोकव्याप्त हो गये। वे फिर उपाधि से नाम बन गयेकृष्ण चन्द्र ने पहले जरासंघ को पछाड़ा और फिर उसके निमंत्रण पर भारत आये आक्रांता कालयवन को मारा। कष्ण भी नाम से उपाधि बने और फिर उपाधि से नाम बन गये। विक्रमादित्य भी पहले उपाधि बने। फिर उपाधि से नाम बन गये। इसी को लोकव्यापीकरण कहते हैं। नाम से नाम की यह यश यात्रा इतनी सहज नहीं होती। हूणारि यशोधर्मा ने भी दशपुर जनपद से हूणों को खदेड़ बाहर किया किन्तु के उपाधि नहीं बन सके। इसका कारण था यशोधर्मा का लोकमान्य नहीं हो पाना। यशोधर्मा राजा बने रहे वे लोक के दायरे में नहीं आये। वर्तमान युग में महात्मा गाँधी का उदाहरण बहुत स्पष्ट है, वे उपाधि बन गयीलोक से जुड़कर एकमेव हो जाना ही मनुष्य को महनीयता प्रदान कर सकता है।ऊँची कूद से पहले थोड़ा झुकना पड़ता है। बड़ा होने के लिये छोटा होना पड़ता है। भगवान् विष्णु का वामन रूप इसी बात का उदाहरण हैमहाराजा भोज ने अपने काल में भारत पर हुए प्रथम तुर्क आक्रमण को निष्फल किया। वे उपाधि नहीं बन सके।उनके आदर्श विक्रमादित्य थे। भोज विक्रमादित्य की समकक्षता तो प्राप्त कर गये। उनसे नहीं बढ़ सके। वे लोकपुरुष बन गये। दिव्यपुरुष नहीं बने। विक्रमादित्य के बाद भी भारत पर कई आक्रमण हुये। अपने समय के राजाओं ने उन्हें खदेड़ने और उनके आक्रमणों को निष्फल करने में अपने बल और पराक्रम का खूब प्रयोग किया। वे सफल भी हुये। सबने अपना यश विक्रमादित्य उपाधि में निहित कर लिया।


यह सिलसिला भारत पर हुए बाद के कई आक्रमणों के समय के बाद तक भी चला किन्तु बाद में ऐसा कोई एक छत्र सम्राट् नहीं हुआ जो विदेशी आक्रांताओं को भारत में अपनी सत्ता स्थापित करने से रोक पाता। अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ने के लिए 1857 की क्रांति का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाना चाहिए। बाद में सेनानियों की शहादत और महात्मा गाँधी के सत्याग्रहों के प्रयोग का परिणाम अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ने में महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए। विदेशी आक्रांताओं को खदेड़ने में विक्रमादित्य का नाम सर्वोपरि माना जाता है।


लोकनायक विक्रमादित्य ने इतिहास को जैसा छकाया है वह अद्भुत और अनुपम है। लोक ने पूरे सम्मान के साथ अपने वीर नायक को अपना आदर्श मान लिया। वीर विक्रमादित्य ने वचन दृढ़ता और न्याय निष्ठा की ऐसी यश पताका फहराई कि उससे कई पीढ़ियाँ यशस्वी हो गई। उसी परम्परा में राजा भोज ने फिर एक बार वीर विक्रमादित्य की याद ताजा कर दी। विक्रमादित्य और राजा भोज के मध्य का समय शून्यकाल जैसा हो चुका था। भोज ने उस शून्यता को तोड़ा।


वीर विक्रमादित्य पर अनेक ग्रंथों की रचना की गयीइनमें बुधस्वामी रचित बृहत्कथाश्लोकसंग्रह, क्षेमेन्द्र की बृहत्कथामंजरी, सोमदेव का कथासरित्सागर सबसे अधिक चर्चित हुई और इन्हीं ग्रन्थों में से बेतालपच्चीसी तो जन-जन के कंठ पर भारत और भारत के बाहर तक विस्तारित हो गई। इन्हीं ग्रंथों में से संग्रहीत बेतालपच्चीसी को जितनी प्रसिद्धि मिली उतनी ही प्रसिद्धि शुकसप्तति या किस्सा तोता मैना को भी मिली। सिंहासनबत्तीसी भले ही विक्रमादित्य की दिव्यता को लोक स्थापित करने वाली कथाएँ हैं किन्तु इन कथाओं के वास्तविक प्रेरक लोकपुरुष राजा भोज हैंजहाँ तोता मैना की कहानियाँ, विक्रमादित्य की लोकख्याति को प्रमाणित करती है और उन्हें लोक में सहजता प्रदान करती है वहीं बेतालपच्चीसी और सिंहासनबत्तीसी उन्हें दिव्य बना देती है। सिंहासनबत्तीसी तो राजा भोज के लिये लिखी गई, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है। इसलिए जैन कवि मालदेव ने अपने ग्रंथ भोज चरित्रराहा में कहा भी है


"सिंहासन बत्तीसी की कथा सरस अवदात। राजा भोज न होत तऊ को तमु जानत वात।।''


सिंहासनबत्तीसी में तो विक्रमादित्य को वीर, साहसी, देवप्रिय, शक्तिमान, न्यायप्रिय, सत्यवादी, प्रजापालक एवं वचन धारक के रूप में बखाना गया हैअनेक सिद्धियाँ उनके वश में थीभूत-पिशाच, डाकिनियाँ उनके वश में थी और उनके संकेत मात्र से प्रकट हो जाती थी। वे अपने पराक्रम से इन्द्र तक को भयभीत करने की क्षमता रखते थेऐसी अनेक कथाएँ, गाथाएँ और गीत लोक में प्रचलित हैं। ऐसा ही एक लोक संदर्भ द्रष्टव्य है


"छप्पन को साल, चारी बँट अकाल।


परजा वई बेहाल। मचगी त्राही-त्राही


रगसा करो हे इन्दर देवता, रगसा करो


महाकाल।


महाकाल को व्यो आदेस। जागो राजेश।


इन्दर ने ललकारो, मालवा ने काल ती उबारो।


विक्रमादित्य ने ताणी कमाण।


कमान पे चढ़ायो तीर। धन्य-धन्य विक्रमवीर।


विक्रमादित्य ने छोड्या बाण।


एक दाण नी हजार दाण।


वादन्या में कर दिया सुराख।


खूब वरस्यो पाणी, खूब, पाकी साख


इन्दर राजा परगठ्या,


पवन देव परगठ्या,


विक्रमादित्य की करि जै जैकार।


वरसी गया फूलड़ा। मिटि गयो कार।।''


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